Wednesday, December 29, 2010

महादेव


जैसे से जैसे सूरज निकलता है,

नीला होता जाता है आसमान।

जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।

धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने-तपने लगती है भरपूर।

शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा .... और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।

20.06.2010

यह कविता समालोचन पर भी पोस्ट हुई है।

Wednesday, December 22, 2010

वह कुछ बोल नहीं सका।

इस कविता को असुविधा पर भी पढ़ा जा सकता है।

चार साल थी उसकी उम्र,
जब उसके पिता का देहांत हुआ।

घर में लाश रखी थी।
अगरबत्ती का धुँआ सीधे छत को छू रहा था।
लोग भरे थे ठसा ठस।
वह सबकी नज़रें बचा कर,
सीढ़ियों से उतर कर
बेसमेंट में खड़ी पापा की स्कूटर के पायदान पर बैठ जाता था।
स्कूटर पोंछता और पोंछ कर ऊपर चला आता।

मुझे पता नहीं, उसे मरने के मतलब बारे में पता था या नहीं।
लेकिन मौत के बाद बदले समीकरण को उसने उसी उम्र में देख लिया था।
जो रो रहे थे, वे रो नहीं रहे थे।
क़ुरान की तेलावत की भिन भिन करती आवाज़ों के ख़ामोश मध्यांतर में,
चाभियों, वसीयत, जायदाद, खाते और इंश्योरेंस का महत्व बढ़ गया।

दफ़्न के बाद वह खड़ा रह गया अकेला
अपनी विधवा माँ के साथ बाढ़ के बाद धुल चुके घर के बीच।

कुछ भी रोक नहीं सका।
वह कुछ बोल नहीं सका।
अभिव्यक्ति का अभ्यास नहीं था उसका।

Monday, December 20, 2010

बाघ

यह कविता असुविधा पर 14 दिसंबर को पोस्ट हुई थी। आज इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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मुझे उम्मीद है कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए,
बाघ बन जायेगा कवि,
जैसे डायनासोर बन गया छिपकली,
और कवि कभी कभी बाघ।

वह पंजा ही है
जो बाघ और कवि को लाता है समकक्ष।
दोनों ही निशान छोड़ते हैं। मारे जाते हैं।

Monday, December 13, 2010

चिड़ियाघर का एक नया प्राणी


यह कविता सर्वप्रथम दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'दो आबा' के दिसंबर 2010 के अंक में छपी। फिर कुछ संशोधन के साथ जनज्वार पर आई। संशोधन का अपना अधिकार सुरक्षित रखते हुए मैंने अब इसका शीर्षक बदल दिया है।

1

उसकी आँखें लाल नहीं हैं।
न ही वह ग़ुस्से में है।
उसके सामने जो जंगल जल गये,
उसके बिम्ब अंकित हैं उनमें।

धनुष सी देह और तीर सी निगाह लिए जबकि वह चुपचाप खड़ा है।
पर लोग नज़र बचा के कन्खी से ऐसे देख रहे हैं
मानो कुछ हुआ ही न हो।
हालांकि ऐसी कोई ख़बर भी नहीं कि कुछ हुआ है।

अभी तो बस वह शहर में आया ही है,
और लोगों को हो रहा है किसी प्रलय का आभास,
जबकि वह पिंजड़े में बंद है।
और कल से शुरु हो जायेगी उसकी नुमाईश।

2

वह अकेला ऐसा है,
जो बता सकता है क, ख, ग, घ के अलग अलग माने।
और उन्हें जोड़ कर बना सकता है शब्द।
बता सकता है वाक्य विन्यास।

वह पहचान सकता है परिन्दों को रंग और रूप से।
बोल सकता है उनकी बोली,
समझता है उनकी वाणी।
उसके कंठ में अभी सूखा नहीं है कुँए का पानी।

वह अकेला ऐसा है जो,
बता सकता है बच्चों को पेड़ों के नाम।

चिड़ियाघर में एक नये प्राणी के आगमन का,
शहर में लगा है विज्ञापन।

Tuesday, December 07, 2010

नानी का चश्मा


आसमान में टिम टिमाती नानी हँसती होंगी हमारे बचपने पर।


नानी का चश्मा मुझे किसी दूरबीन की तरह ही अजूबा लगता था।

मैं अक्सर उससे पढ़ने की कोशिश करता।

पर उसे लगाते ही आँखें चौन्धिया जातीं थीं।


शब्द चढ़ आते थे और आँखों की कोर से फिसल जाते थे।

तस्वीरें बोलती नहीं, दहाड़ती थीं।

आँखों पर ज़ोर पड़ता था, और मैं जल्दी से उतार कर रख देता।


आज मुझे समझ में आता है कि हमारा आकर्षण असल में चश्मा नहीं था।

उनके उस रूप में था, जो चश्मा लगाने के बाद बदल जाता था।

चश्मा लगा कर, नानी अपना शरीर छोड़ कर किसी लम्बी यात्रा पर निकल गईं दीखती थीं।

यही था हमारा वास्तविक आकर्षण।


अपने ममेरे भाई के साथ उन दिनों चश्मे का रहस्य पता करने में जुटा था।

मेरा भाई कहता था कि इसमें कहानियाँ दीखती हैं।

इसीलिए तो दादी घंटों चश्मा लगाए रखती हैं।

अख़बार और किताब तो बहाना है।


चश्मा छूने और देखने के हमारे उतावलेपन से उनका ध्यान भंग होता,

और वे चश्मे के भीतर से ही हमें देखतीं बाघ की तरह। धीर गंभीर और गहरी।

क्या वे हमें बाघ का बच्चा समझती थीं ?


एक बार टूट गया उनका चश्मा और हमने दौड़ कर उसका शीशा उठा लिया।

यह सोच कर कि शायद हमें दिख जाए कोई कहानी बाहर आते हुए।


मैं ही गया था चश्मा बनवाने।

मैंने चश्मे वाले से पूछा

कि नानी के चश्मे से हमें क्यों नहीं दीखता कुछ भी साफ़ साफ़।

चश्मे वाले ने कहा,

“हर किसी का अपना चश्मा होता है। उसकी अपनी आँख के हिसाब से।

नानी की एक उम्र है, इसीलिए इतना मोटा चश्मा लगाती हैं।

तुम अभी बच्चे हो तुम्हारा चश्मा इतना मोटा नहीं होगा”।


हम दोनों भाई सोचते थे कि कब वह दिन आयेगा, जब हम भी लगायेंगे एक मोटा सा चश्मा।


अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,

उस चश्मे में दिखते हैं नाना,

सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।

गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।

आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।

फ़ौज का उतरना।

रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।

कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।

अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।


और कितने तूफ़ान !!!

कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने से।

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तस्वीर में हृषिकेश सुलभ लिखित 'रंगमंच का जनतंत्र' पढ़ते हुए नानी। साथ में हैं मामू परवेज़ अख़्तर।



Friday, November 26, 2010

नया जन्म


इस कविता को मैंने फ़ेसबुक पर 28 मई 2010 को पोस्ट किया था।

1

एक नया जन्म लेना चाहता हूँ, पर शिशु के रूप में नहीं।
उतना ही व्यस्क, जितना अभी हूँ, हो कर जन्म लेना चाहता हूँ।

मन को, जिसने बाँध रखा है इस जन्म में,
उसे छोड़ कर लेना चाहता हूँ जन्म।

जो कुछ अमानवीय है, वे सब छूट जाएँ उस नये जन्म में।
चाहता हूँ कि खो जाएँ सारी भूलें।
कोई न पुकारे पीछे से।
रफ़ू कर सकें जो कुछ फटा पुराना है।
इसलिए,
जन्म लेना चाहता हूँ फिर से असल में स्वतंत्र।

2

नया जन्म गर्भ से निकलना नहीं होगा।
न ही होगा किसी की निगरानी में पलना।

गंगा में एक डुबकी लगा कर निकलना, होगा नया जन्म।
निकलते ही हम लेंगे धूप की पहली सेंक अपनी तरह से।
और कपड़े पहनेंगे अपने करघे के।

3

मेरे साथ इस नये जन्म में मेरे दोस्त हाथ बढ़ाओ।
यह नया जन्म इंसाफ़ के संघर्ष का होगा। यक़ीन मानो।
मतभेद के साथ अहिंसक, अस्तित्व और सम्मान का होगा।

जो भी होगा अच्छा ही होगा,
क्यों कि अभी जो भी अच्छा नहीं है, उसे ही डुबोने के लिए लगायेंगे डुबकी गंगा में।
फिर निकलेंगे होकर शुद्ध,
बनकर गंगा पुत्र।

Thursday, November 25, 2010

एक और बाघ।


आज मैं अपने ब्लॉग पर अपनी वह कविता लगाने जा रहा हूँ जिसे आदरणीय उदय प्रकाश जी ने अपने ब्लॉग पर 14 मई 2010 को पोस्ट किया था। उनके पोस्ट से और उनकी टिप्पणी से मेरा जितना उत्साह बढ़ा उसका बयान मुश्किल है। मैं उदय जी का बहुत बहुत आभारी हूँ। उनकी भूमिका-नुमा टिप्पणी के साथ मैं उस कविता को यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
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अभी अभी युवा कवि फ़रीद खान की यह कविता 'एक और बाघ' पढी़। बहुत देर तक और अभी तक यह कविता ज्यों की त्यों अपने पूरे अस्तित्व के साथ मेरे मस्तिष्क में है। पिछले साल मार्च में आगरा में हुए SAARC देशों के लेखक सम्मेलन में एक अमेरिका में रह रहे भारतीय अंग्रेज़ी कवि ने एक कविता सुनाई थी :'वे लोग जो बाघ को बचाने का दावा कर रहे हैं/ वे लोग झूठ बोलते हैं/ क्योंकि वे घास के बारे में चुप हैं...''
फ़रीद की इस कविता के अभागे बाघ के स्वप्न में भी घास है। अपनी हत्या के ठीक पहले।

'बाघ' कवियों के लिए एक बहुत प्रिय विषय रहा है। होर्खे लुइस बोर्खेज़ की प्रसिद्ध कविता 'बंगाल टाइगर' के बिंब कभी विस्मृत नही होते। 'रेत की किताब' (दि बुक आफ़ सैंड) संग्रह में वह लंबी कविता बार-बार अपनी ओर खींचती रहती है। कुछ साल पहले अपने उपन्यास 'लाइफ़ आफ़ पई' (या पी) के लिए बुकर पाने वाले यान मार्टेल के उस उपन्यास में भी समुद्र में भटकते 'लाइफ़ बोट' में भी लगातार सोते हुए बंगाल टाइगर (सुंदर वन का बाघ) के जाग जाने का भय लेकिन साथ ही उसकी भव्य, गरिमापूर्ण उपस्थिति उस कथा का एक अपूर्व वातावरण बनाती है। केदारनाथ सिंह की बहुचर्चित कविता 'बाघ' पर तो मैंने लिखा भी था। वह कविता भी हिंदी की महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है। फ़रीद की कविता की तरह ही केदारनाथ सिंह की कविता में भी कई तरह के आख्यानात्मक काव्य-रूपक है। बाघ गुर्राया और आश्रम के सारे शिष्य भाग गये लेकिन पाणिनि ने बाघ को उसकी भाषा में अशुद्धि के लिए डांटना शुरू किया, और बाघ इसीलिए उन्हें खा गया।

लेकिन फ़रीद की कविता बिल्कुल आज के समय और संदर्भ में अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।

अभी-अभी कुछ ही देर पहले, इस कविता पर मेरे प्रिय लेखक और अपने लेखन के लिए दुनिया भर में विख्यात अमितावा कुमार की भी टिप्पणी आयी है। उनका कहना है कि फ़रीद की इस कविता को छत्तीसगढ़ के जंगलों के पेड़ों पर टांग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयां..कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है!

आप भी यह कविता पढ़ें ! - उदय प्रकाश ।
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इसके अलावा मैं उन सभी सुधी जनों का भी आभारी हूँ जिन्होंने उदय जी की पोस्ट पर और फ़ेसबुक पर टिप्पणी कर के मेरा हौसला बढ़ाया। अब आप कविता पढ़ें।
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गीली मिट्टी पर पंजों के निशान देख कर लोग डर गये।
जैसे डरा था कभी अमेरिका ‘चे’ के निशान से।
लोग समझ गये,
यहाँ से बाघ गुज़रा है।

शिकारियों ने जंगल को चारों ओर से घेर लिया।
शिकारी कुत्तों के साथ डिब्बे पीटते लोग घेर रहे थे उसे।
भाग रहा था बाघ हरियाली का स्वप्न लिये।
उसकी साँसे फूल रही थीं,
और भागते भागते
छलक आई उसकी आँखों में उसकी गर्भवती बीवी।

शिकारी और और पास आते गये
और वह शुभकामनाएँ भेज रहा था अपने आने वाले बच्चे को,
कि “उसका जन्म एक हरी भरी दुनिया में हो”।

सामने शिकारी बन्दूक लिये खड़ा था
और बाघ अचानक उसे देख कर रुका।
एकबारगी सकते में धरती भी रुक गई,
सूरज भी एकटक यह देख रहा था कि क्या होने वाला है।

वह पलटा और वह चारों तरफ़ से घिर चुका था।
उसने शिकारी से पलट कर कहा,


“मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूँ, मुझे मत मारो”।

चारों ओर से उस पर गोलियाँ बरस पड़ीं।

उसका डर फिर भी बना हुआ था।

शिकारी सहम सहम कर उसके क़रीब आ रहे थे।

उसके पंजे काट लिये गये, जिससे बनते थे उसके निशान।
यह ऊपर का आदेश था,
कि जो उसे अमर समझते हैं उन्हें सनद रहे कि वह मारा गया।


आने वाली पीढ़ियाँ भी यह जानें।
उसके पंजों को रखा गया है संग्रहालय में।

Monday, November 22, 2010

आमिर अब्बास की कविता 'पापा'



(यह आमिर अब्बास की कविता है। आमिर की उम्र 14 साल है।)

पापा मैं कभी भूल से भी आपको याद नहीं करता।
लेकिन जब मस्जिद की आज़ान देती है सुनाई,
तो आपकी याद अपने आप आ जाती है।

पापा मैं कभी आपको याद नहीं करता।
लेकिन जब कूकती है कोयल,
महकता है गुलाब,
खिलखिलाता है गुलमोहर
तो बहती हवा के साथ
आपकी याद अपने आप चली आती है।

पापा मैं कभी भूल से भी आपको याद नहीं करता।
पर जब काम से थक कर अम्मी चिल्लाती हैं मुझ पर,
तब ढूंढता हूँ आपको
कि आप मुझे अपनी गोद में छिपा लें।
तब पापा आपकी याद अपने आप चली आती है।

पापा मैं कभी भूल से भी आपको याद नहीं करता।
लेकिन आपकी याद अपने आप चली आती है मेरे पास।

Saturday, November 20, 2010

पका बाघ।


कंस्ट्रक्शन साईट पर एक आदिवासी औरत पका रही थी रोटी।
उसका बेटा रोटी खाने से कर रहा था इंकार।
उसे चाहिए था बाघ।

उस औरत ने लोई से बनाया एक बाघ और चूल्हे में पकाया।

गर्म और पका हुआ
चूल्हे से निकला बाघ।
बच्चे ने पूरा का पूरा बाघ एक साथ डाल लिया मुँह में,
और उसका चेहरा हो गया लाल।

बच्चे को देख कर औरत को अपने पति की याद आ गई।
जो मारा गया था,
जंगल के पेड़ बचाते हुए।
औरत की छाती में उमड़ आया प्यार।

Saturday, November 13, 2010

छठ की याद में



पटना की स्मृति के साथ मेरे मन में अंकित है,
गंगा में अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज।

पूरे शहर की सफ़ाई हुई होगी।
उस्मान ने रंगा होगा त्रिपोलिया का मेहराब।
बने होंगे पथरी घाट के तोरण द्वार।

परसों सबने खाए होंगे गन्ने के रस से बनी खीर,
और गुलाबी गगरा निंबू।
व्रती ने लिया होगा हाथ में पान और कसैली।

अम्मी बता रही थीं,
चाची से अब सहा नहीं जाता उपवास,
इसलिए मंजु दीदी ने उठाया है उनका व्रत।
धान की फ़सल अच्छी आई है इस बार।
रुख़सार की शादी भी अब हो जायेगी।
उसकी अम्मी ने भी अपना एक सूप दिया था मंजु दीदी को।
सबकी कामनाएँ पूरी होंगी।


पानी पटा होगा सड़कों पर शाम के अर्घ्य के पहले।
धूल चुपचाप कोना थाम कर बैठ गई होगी।
व्रती जब साष्टांग करते हुए बढ़ते हैं घाट पर,
तो वहाँ धूल कण नहीं होना चाहिए, न ही आना चाहिए मन में कोई पाप।
वरना बहुत पाप चढ़ता है।

इस समय बढ़ने लगती है ठंड पटना में।

मुझे याद है एक व्रती।
सुबह अर्घ्य देकर वह निकला पानी से,
अपने में पूरा जल जीवन समेटे
और चेहरे पर सूर्य का तेज लिये।
गंगा से निकला वह
दीये की लौ की तरह सीधा और संयत।

सुबह के अर्घ्य में ज़्यादा मज़ा आता था,
क्यों कि ठेकुआ खाने को तब ही मिलता था।

पूरा शहर अब थक कर सो रहा होगा,
एक महान कार्य के बोध के साथ।

13. 11. 2010

Friday, November 12, 2010

बाघ



बाघ की आँखों को देख कर याद आती है भगत सिंह की,
चन्द्रशेखर की,
तीर धनुष लिये काले आदिवासियों की।
लक्ष्यभेदी अविचल आँखें उनकी, बाघ जैसी।

बाघ हमला करेगा तो मारा जायेगा, यह तय है।
पर कोई उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करेगा,
तो चीर डाला जायेगा यह भी तय है।

अँधेरी रात में जुड़वाँ तारों जैसी उसकी आँखें,
भगत सिंह की आँखों की याद दिलाती हैं,
सपनों में डूबी आँखें।

बाघ इंसान थोड़े ही है,
उसे क्या मालूम कि उसकी आड़ में कोई अपनी सरकार चला रहा है।
या उसकी अपनी सरकार उसके जंगल का सौदा कर रही है।
बाघ तो जानवर है।
ईश्वर ने जैसा पैदा किया वैसा ही, बिल्कुल ठेठ।

फँस जायेगा और मर मिटेगा अपने जंगल पर।

7 मई 2010

Thursday, November 11, 2010

आभासी युद्ध

फ़िल्मों में वियतनाम को जीतने के बाद
अमेरिका ने बना लिया है कास्त्रो को मारने के लिए विडियो गेम।
अब कास्त्रो बच नहीं सकता।
लेकिन,
“कम से कम उन बच्चों को तो बचा लो
जिन्होंने अभी आदमी का मांस नहीं चखा है”।
(लू शुन, एक पागल की डायरी।)

महाशक्ति अमेरिका,
उस शून्य को कभी मार नहीं पाया,
जो ‘चे’ को मारने के बाद उगा था।
जो वियतनाम से लेकर उसके सैनिक लौटे थे।
जो छाया रहा हिरोशिमा नागासाकी के आसमान पर।
जो सैकड़ों गले का फंदा बना।

एक के बाद एक सैनिकों की बलि चढ़ाने के बाद,
जो उलझ गया है उसी शून्य में,
और झुंझला रहा है ख़ुद ही में।
जैसे झुंझला रहा है बामियान में बुद्ध को ध्वस्त करने बाद तालिबान।
जिसमें उलझ कर रह गई है भाजपा 6 दिसंबर के बाद।

ध्वंस के बाद उगा वह शून्य इतना महंगा पड़ता है,
कि हिरोशिमा पर बम गिराने वाला हो जाता है विक्षिप्त।

आभासी युद्ध से नहीं जीती जाती दुनिया।
राजपाट छोड़ कर मैदान में आना पड़ता है बुद्ध की तरह।

Monday, November 08, 2010

उसकी हथेली और हमारी बात

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उसने हाथ बढ़ाया मेरी ओर
मैंने भी बढ़ कर हाथ मिलाया।

उसकी नर्म और गर्म हथेली बच्चों की सी थी।
मैंने हथेली भर कर उसका हाथ थाम लिया।

हम बात कुछ और कर रहे थे,
सोच कुछ और रहे थे,
पर हम साथ साथ समझ रहे थे,
कि यूँ हाथ मिलाना अच्छा लगता है।
रस्ता रोक कर यूँ बातें घुमाना अच्छा लगता है।

फिर दोनों ही झेंप गये।
संक्षेप में मुस्कुरा कर अपनी अपनी दिशा हो लिये।

किसी बहाने से अचानक मैं पलटा,
और वह जा चुकी थी।

कुछ सोच कर वह भी पलटी होगी,
और मैं जा चुका होउंगा।

उस रास्ते पर अब रोज़, उसी समय मैं आता हूँ।

Sunday, November 07, 2010

वह बोल रही है।

वह अब बड़ी हो गई है।
मैं उसकी उम्र की बात नहीं कर रहा।

वह देश के चार पाँच बड़े शहर घूम कर आई है।

मानो उसने अभी अभी चलना सीखा और दौड़ रही है।
मानो उसने अभी अभी भाषा सीखी और बोल रही है।

उसकी तस्वीरों के शोर से समझ में आ रहा है
कि उसका विश्वास छू रहा है,
धरती और आसमान एक साथ।

Thursday, November 04, 2010

वह

वह हर गली नुक्कड़ पर तन कर खड़ा था।
लोग आते जाते सिर नवाते, चद्दर चढ़ाते उसको।

दीमक ने अपना महल बना लिया था अन्दर ही अन्दर उसके।

मैंने जब वरदान माँगा,
तो वह ढह गया।
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21 सितंबर 2010.

Wednesday, November 03, 2010

भूख


भूख बनाती है मूल्य।

इस पार या उस पार होने को उकसाती है।
नियति भूख के पीछे चलती है।
ढा देती है मीनार।

सभी ईश्वर, देवी-देवता, स्तब्ध रह जाते हैं।
भूख रचती है इतिहास।

Saturday, October 30, 2010

दादा जी साईकिल वाले


इंसान जिस भस्मासुर को पैदा करता है, वह भस्मासुर उसे ही लील जाता है। क्यों कि वह इंसान ईश्वर नहीं होता जो भस्मासुर को भस्म कर सके। इन्दीरा गाँधी ने एक भस्मासुर पैदा किया था जिसने उन्हें ही भस्म कर दिया। और भस्म हो गया बहुत कुछ जिसके मलबे पर लाचार हम खड़े हैं।
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मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया,
मेरी साईकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई।
और उन सभी साईकिलों को कसा था,
पटना कॉलेज के सामने वाले “दादा जी साईकिल वाले” नाना ने।

अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती
ज़्यादातर साईकिलें उनके हाथों से ही कसी थीं।
पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था।
हाँफ रहा था।
गंतव्य तक पहुँच रहा था।

वहाँ से गुज़रने वाले सभी,
वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे।
सत सिरी अकाल कहने के लिए।
चक्के में हवा भरने के लिए।
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए।
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए।

पछिया चले या पूरवईया, पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी।

हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी।
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई।
पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी।
तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी।

मुझे वहाँ साईकिल में लगाने वाला आईना दिखा,
मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया।
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था।

शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी कि इन्दीरा गाँधी का देहांत हो गया।

चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली।

शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था।
हवा सब में कम कम थी।

स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह।
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा,
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे।
उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, “रहने दो”।
एक दानवीर दान कर रहा था आईना।

उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।

Friday, October 29, 2010

एक पागल का प्रलाप


मैंने अभय जी (अभय तिवारी) द्वारा अनूदित और संपादित 'कलामे रूमी' की सत्तर पृष्ठों वाली भूमिका पढ़ी तो मुझ पर रूमी सवार हो गया और सूफ़ियाना निर्भयता के चरम को महसूस करने के बाद यह कविता अवतरित हुई। अभय जी ने इस कविता को अपने ब्लॉग निर्मल आनन्द पर पोस्ट किया था। अब मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।



कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।

वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।

जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।

जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।

पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?

वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?

Thursday, October 28, 2010

पानी

लिखने का शौक मुझे बचपन से रहा है। पर कभी कुछ छपा नहीं। सर्वप्रथम अभय जी (अभय तिवारी) ने अपने ब्लॉग 'निर्मल आनन्द' पर 20 मई 2007 को 'पानी' प्रकाशित किया। उनको आभार के साथ एक बार फिर से अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ।


पानी
........



खबर आई है कि कुएँ बंद किए जा रहे हैं,
जहाँ से गुज़रने वाला कोई भी राहगीर,
किसी से भी पानी माँग लिया करता था।

वैज्ञानिकों के दल ने बताया है,
कि इसमें आयरन की कमी है,
मिनिरलस का अभाव है,
बुखार होने का खतरा है।

अब इस कुएँ के पानी से,
सूर्य को अर्घ्य नहीं दिया जा सकेगा,
उठा देनी पड़ेगी रस्म गुड़ और पानी की।

सील कर दिये कुएँ,
रोक दी गई सिचाई।

सूखी धरती पर,
चिलचिलाती धूप में बैठी,
आँखें मिचमिचाते हुए अम्मा ने बताया,
चेहरे से उतर गया पानी,
नालियों में बह गया पानी,
आँखों का सूख गया पानी,
प्लास्टिक में बिक गया पानी।

Wednesday, October 27, 2010

नाटक की शुरुआत


आती है रौशनी उस रौशनदान से
छोटी सी दीवार की जगह को घेरते हुए।
स्पॉट लाईट की तरह,
आती है रौशनी उस रौशनदान से।
जैसे लगता है, बस,
नाटक शुरु होने वाला है।

Tuesday, October 26, 2010

गंगा मस्जिद

यह बचपन की बात है, पटना की।
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ के मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।

गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”।
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती।
परिन्दे ख़ूब कलरव करते।

इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती।
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती।
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते।

मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल।
वुज़ू करता।
आज़ान देता।

लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते,
नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते।

आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते।
सरकार ने अब वुज़ू के लिए साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है।

गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।

गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को।
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।
.............................................06/12/2010

*मुअज़्ज़िन - आज़ान देने वाला।