Saturday, October 30, 2010

दादा जी साईकिल वाले


इंसान जिस भस्मासुर को पैदा करता है, वह भस्मासुर उसे ही लील जाता है। क्यों कि वह इंसान ईश्वर नहीं होता जो भस्मासुर को भस्म कर सके। इन्दीरा गाँधी ने एक भस्मासुर पैदा किया था जिसने उन्हें ही भस्म कर दिया। और भस्म हो गया बहुत कुछ जिसके मलबे पर लाचार हम खड़े हैं।
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मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया,
मेरी साईकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई।
और उन सभी साईकिलों को कसा था,
पटना कॉलेज के सामने वाले “दादा जी साईकिल वाले” नाना ने।

अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती
ज़्यादातर साईकिलें उनके हाथों से ही कसी थीं।
पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था।
हाँफ रहा था।
गंतव्य तक पहुँच रहा था।

वहाँ से गुज़रने वाले सभी,
वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे।
सत सिरी अकाल कहने के लिए।
चक्के में हवा भरने के लिए।
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए।
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए।

पछिया चले या पूरवईया, पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी।

हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी।
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई।
पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी।
तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी।

मुझे वहाँ साईकिल में लगाने वाला आईना दिखा,
मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया।
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था।

शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी कि इन्दीरा गाँधी का देहांत हो गया।

चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली।

शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था।
हवा सब में कम कम थी।

स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह।
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा,
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे।
उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, “रहने दो”।
एक दानवीर दान कर रहा था आईना।

उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।

Friday, October 29, 2010

एक पागल का प्रलाप


मैंने अभय जी (अभय तिवारी) द्वारा अनूदित और संपादित 'कलामे रूमी' की सत्तर पृष्ठों वाली भूमिका पढ़ी तो मुझ पर रूमी सवार हो गया और सूफ़ियाना निर्भयता के चरम को महसूस करने के बाद यह कविता अवतरित हुई। अभय जी ने इस कविता को अपने ब्लॉग निर्मल आनन्द पर पोस्ट किया था। अब मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।



कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।

वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।

जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।

जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।

पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?

वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?

Thursday, October 28, 2010

पानी

लिखने का शौक मुझे बचपन से रहा है। पर कभी कुछ छपा नहीं। सर्वप्रथम अभय जी (अभय तिवारी) ने अपने ब्लॉग 'निर्मल आनन्द' पर 20 मई 2007 को 'पानी' प्रकाशित किया। उनको आभार के साथ एक बार फिर से अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ।


पानी
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खबर आई है कि कुएँ बंद किए जा रहे हैं,
जहाँ से गुज़रने वाला कोई भी राहगीर,
किसी से भी पानी माँग लिया करता था।

वैज्ञानिकों के दल ने बताया है,
कि इसमें आयरन की कमी है,
मिनिरलस का अभाव है,
बुखार होने का खतरा है।

अब इस कुएँ के पानी से,
सूर्य को अर्घ्य नहीं दिया जा सकेगा,
उठा देनी पड़ेगी रस्म गुड़ और पानी की।

सील कर दिये कुएँ,
रोक दी गई सिचाई।

सूखी धरती पर,
चिलचिलाती धूप में बैठी,
आँखें मिचमिचाते हुए अम्मा ने बताया,
चेहरे से उतर गया पानी,
नालियों में बह गया पानी,
आँखों का सूख गया पानी,
प्लास्टिक में बिक गया पानी।

Wednesday, October 27, 2010

नाटक की शुरुआत


आती है रौशनी उस रौशनदान से
छोटी सी दीवार की जगह को घेरते हुए।
स्पॉट लाईट की तरह,
आती है रौशनी उस रौशनदान से।
जैसे लगता है, बस,
नाटक शुरु होने वाला है।

Tuesday, October 26, 2010

गंगा मस्जिद

यह बचपन की बात है, पटना की।
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ के मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।

गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”।
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती।
परिन्दे ख़ूब कलरव करते।

इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती।
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती।
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते।

मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल।
वुज़ू करता।
आज़ान देता।

लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते,
नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते।

आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते।
सरकार ने अब वुज़ू के लिए साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है।

गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।

गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को।
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।
.............................................06/12/2010

*मुअज़्ज़िन - आज़ान देने वाला।


Monday, October 25, 2010

इंसाफ़

अगर लोग इंसाफ़ के लिए तैयार न हों।
और नाइंसाफ़ी उनमें विजय भावना भरती हो।
तो यक़ीन मानिए,
वे पराजित हैं मन के किसी कोने में।
उनमें खोने का अहसास भरा है।
वे बचाए रखने के लिए ही हो गये हैं अनुदार।
उन्हें एक अच्छे वैद्य की ज़रूरत है।

वे निर्लिप्त नहीं, निरपेक्ष नहीं,
पक्षधरता उन्हें ही रोक रही है।
अहंकार जिन्हें जला रहा है।
मेरी तेरी उसकी बात में जो उलझे हैं,
उन्हें ज़रूरत है एक अच्छे वैज्ञानिक की।

हारे हुए लोगों के बीच ही आती है संस्कृति की खाल में नफ़रत।
धर्म की खाल में राजनीति।
देशभक्ति की खाल में सांप्रदायिकता।
सीने में धधकता है उनके इतिहास।
आँखों में जलता है लहू।
उन्हें ज़रूरत है एक धर्म की।

ऐसी घड़ी में इंसाफ़ एक नाज़ुक मसला है।
देश को ज़रूरत है सच के प्रशिक्षण की।