Friday, November 26, 2010

नया जन्म


इस कविता को मैंने फ़ेसबुक पर 28 मई 2010 को पोस्ट किया था।

1

एक नया जन्म लेना चाहता हूँ, पर शिशु के रूप में नहीं।
उतना ही व्यस्क, जितना अभी हूँ, हो कर जन्म लेना चाहता हूँ।

मन को, जिसने बाँध रखा है इस जन्म में,
उसे छोड़ कर लेना चाहता हूँ जन्म।

जो कुछ अमानवीय है, वे सब छूट जाएँ उस नये जन्म में।
चाहता हूँ कि खो जाएँ सारी भूलें।
कोई न पुकारे पीछे से।
रफ़ू कर सकें जो कुछ फटा पुराना है।
इसलिए,
जन्म लेना चाहता हूँ फिर से असल में स्वतंत्र।

2

नया जन्म गर्भ से निकलना नहीं होगा।
न ही होगा किसी की निगरानी में पलना।

गंगा में एक डुबकी लगा कर निकलना, होगा नया जन्म।
निकलते ही हम लेंगे धूप की पहली सेंक अपनी तरह से।
और कपड़े पहनेंगे अपने करघे के।

3

मेरे साथ इस नये जन्म में मेरे दोस्त हाथ बढ़ाओ।
यह नया जन्म इंसाफ़ के संघर्ष का होगा। यक़ीन मानो।
मतभेद के साथ अहिंसक, अस्तित्व और सम्मान का होगा।

जो भी होगा अच्छा ही होगा,
क्यों कि अभी जो भी अच्छा नहीं है, उसे ही डुबोने के लिए लगायेंगे डुबकी गंगा में।
फिर निकलेंगे होकर शुद्ध,
बनकर गंगा पुत्र।

Thursday, November 25, 2010

एक और बाघ।


आज मैं अपने ब्लॉग पर अपनी वह कविता लगाने जा रहा हूँ जिसे आदरणीय उदय प्रकाश जी ने अपने ब्लॉग पर 14 मई 2010 को पोस्ट किया था। उनके पोस्ट से और उनकी टिप्पणी से मेरा जितना उत्साह बढ़ा उसका बयान मुश्किल है। मैं उदय जी का बहुत बहुत आभारी हूँ। उनकी भूमिका-नुमा टिप्पणी के साथ मैं उस कविता को यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
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अभी अभी युवा कवि फ़रीद खान की यह कविता 'एक और बाघ' पढी़। बहुत देर तक और अभी तक यह कविता ज्यों की त्यों अपने पूरे अस्तित्व के साथ मेरे मस्तिष्क में है। पिछले साल मार्च में आगरा में हुए SAARC देशों के लेखक सम्मेलन में एक अमेरिका में रह रहे भारतीय अंग्रेज़ी कवि ने एक कविता सुनाई थी :'वे लोग जो बाघ को बचाने का दावा कर रहे हैं/ वे लोग झूठ बोलते हैं/ क्योंकि वे घास के बारे में चुप हैं...''
फ़रीद की इस कविता के अभागे बाघ के स्वप्न में भी घास है। अपनी हत्या के ठीक पहले।

'बाघ' कवियों के लिए एक बहुत प्रिय विषय रहा है। होर्खे लुइस बोर्खेज़ की प्रसिद्ध कविता 'बंगाल टाइगर' के बिंब कभी विस्मृत नही होते। 'रेत की किताब' (दि बुक आफ़ सैंड) संग्रह में वह लंबी कविता बार-बार अपनी ओर खींचती रहती है। कुछ साल पहले अपने उपन्यास 'लाइफ़ आफ़ पई' (या पी) के लिए बुकर पाने वाले यान मार्टेल के उस उपन्यास में भी समुद्र में भटकते 'लाइफ़ बोट' में भी लगातार सोते हुए बंगाल टाइगर (सुंदर वन का बाघ) के जाग जाने का भय लेकिन साथ ही उसकी भव्य, गरिमापूर्ण उपस्थिति उस कथा का एक अपूर्व वातावरण बनाती है। केदारनाथ सिंह की बहुचर्चित कविता 'बाघ' पर तो मैंने लिखा भी था। वह कविता भी हिंदी की महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है। फ़रीद की कविता की तरह ही केदारनाथ सिंह की कविता में भी कई तरह के आख्यानात्मक काव्य-रूपक है। बाघ गुर्राया और आश्रम के सारे शिष्य भाग गये लेकिन पाणिनि ने बाघ को उसकी भाषा में अशुद्धि के लिए डांटना शुरू किया, और बाघ इसीलिए उन्हें खा गया।

लेकिन फ़रीद की कविता बिल्कुल आज के समय और संदर्भ में अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।

अभी-अभी कुछ ही देर पहले, इस कविता पर मेरे प्रिय लेखक और अपने लेखन के लिए दुनिया भर में विख्यात अमितावा कुमार की भी टिप्पणी आयी है। उनका कहना है कि फ़रीद की इस कविता को छत्तीसगढ़ के जंगलों के पेड़ों पर टांग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयां..कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है!

आप भी यह कविता पढ़ें ! - उदय प्रकाश ।
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इसके अलावा मैं उन सभी सुधी जनों का भी आभारी हूँ जिन्होंने उदय जी की पोस्ट पर और फ़ेसबुक पर टिप्पणी कर के मेरा हौसला बढ़ाया। अब आप कविता पढ़ें।
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गीली मिट्टी पर पंजों के निशान देख कर लोग डर गये।
जैसे डरा था कभी अमेरिका ‘चे’ के निशान से।
लोग समझ गये,
यहाँ से बाघ गुज़रा है।

शिकारियों ने जंगल को चारों ओर से घेर लिया।
शिकारी कुत्तों के साथ डिब्बे पीटते लोग घेर रहे थे उसे।
भाग रहा था बाघ हरियाली का स्वप्न लिये।
उसकी साँसे फूल रही थीं,
और भागते भागते
छलक आई उसकी आँखों में उसकी गर्भवती बीवी।

शिकारी और और पास आते गये
और वह शुभकामनाएँ भेज रहा था अपने आने वाले बच्चे को,
कि “उसका जन्म एक हरी भरी दुनिया में हो”।

सामने शिकारी बन्दूक लिये खड़ा था
और बाघ अचानक उसे देख कर रुका।
एकबारगी सकते में धरती भी रुक गई,
सूरज भी एकटक यह देख रहा था कि क्या होने वाला है।

वह पलटा और वह चारों तरफ़ से घिर चुका था।
उसने शिकारी से पलट कर कहा,


“मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूँ, मुझे मत मारो”।

चारों ओर से उस पर गोलियाँ बरस पड़ीं।

उसका डर फिर भी बना हुआ था।

शिकारी सहम सहम कर उसके क़रीब आ रहे थे।

उसके पंजे काट लिये गये, जिससे बनते थे उसके निशान।
यह ऊपर का आदेश था,
कि जो उसे अमर समझते हैं उन्हें सनद रहे कि वह मारा गया।


आने वाली पीढ़ियाँ भी यह जानें।
उसके पंजों को रखा गया है संग्रहालय में।

Monday, November 22, 2010

आमिर अब्बास की कविता 'पापा'



(यह आमिर अब्बास की कविता है। आमिर की उम्र 14 साल है।)

पापा मैं कभी भूल से भी आपको याद नहीं करता।
लेकिन जब मस्जिद की आज़ान देती है सुनाई,
तो आपकी याद अपने आप आ जाती है।

पापा मैं कभी आपको याद नहीं करता।
लेकिन जब कूकती है कोयल,
महकता है गुलाब,
खिलखिलाता है गुलमोहर
तो बहती हवा के साथ
आपकी याद अपने आप चली आती है।

पापा मैं कभी भूल से भी आपको याद नहीं करता।
पर जब काम से थक कर अम्मी चिल्लाती हैं मुझ पर,
तब ढूंढता हूँ आपको
कि आप मुझे अपनी गोद में छिपा लें।
तब पापा आपकी याद अपने आप चली आती है।

पापा मैं कभी भूल से भी आपको याद नहीं करता।
लेकिन आपकी याद अपने आप चली आती है मेरे पास।

Saturday, November 20, 2010

पका बाघ।


कंस्ट्रक्शन साईट पर एक आदिवासी औरत पका रही थी रोटी।
उसका बेटा रोटी खाने से कर रहा था इंकार।
उसे चाहिए था बाघ।

उस औरत ने लोई से बनाया एक बाघ और चूल्हे में पकाया।

गर्म और पका हुआ
चूल्हे से निकला बाघ।
बच्चे ने पूरा का पूरा बाघ एक साथ डाल लिया मुँह में,
और उसका चेहरा हो गया लाल।

बच्चे को देख कर औरत को अपने पति की याद आ गई।
जो मारा गया था,
जंगल के पेड़ बचाते हुए।
औरत की छाती में उमड़ आया प्यार।

Saturday, November 13, 2010

छठ की याद में



पटना की स्मृति के साथ मेरे मन में अंकित है,
गंगा में अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज।

पूरे शहर की सफ़ाई हुई होगी।
उस्मान ने रंगा होगा त्रिपोलिया का मेहराब।
बने होंगे पथरी घाट के तोरण द्वार।

परसों सबने खाए होंगे गन्ने के रस से बनी खीर,
और गुलाबी गगरा निंबू।
व्रती ने लिया होगा हाथ में पान और कसैली।

अम्मी बता रही थीं,
चाची से अब सहा नहीं जाता उपवास,
इसलिए मंजु दीदी ने उठाया है उनका व्रत।
धान की फ़सल अच्छी आई है इस बार।
रुख़सार की शादी भी अब हो जायेगी।
उसकी अम्मी ने भी अपना एक सूप दिया था मंजु दीदी को।
सबकी कामनाएँ पूरी होंगी।


पानी पटा होगा सड़कों पर शाम के अर्घ्य के पहले।
धूल चुपचाप कोना थाम कर बैठ गई होगी।
व्रती जब साष्टांग करते हुए बढ़ते हैं घाट पर,
तो वहाँ धूल कण नहीं होना चाहिए, न ही आना चाहिए मन में कोई पाप।
वरना बहुत पाप चढ़ता है।

इस समय बढ़ने लगती है ठंड पटना में।

मुझे याद है एक व्रती।
सुबह अर्घ्य देकर वह निकला पानी से,
अपने में पूरा जल जीवन समेटे
और चेहरे पर सूर्य का तेज लिये।
गंगा से निकला वह
दीये की लौ की तरह सीधा और संयत।

सुबह के अर्घ्य में ज़्यादा मज़ा आता था,
क्यों कि ठेकुआ खाने को तब ही मिलता था।

पूरा शहर अब थक कर सो रहा होगा,
एक महान कार्य के बोध के साथ।

13. 11. 2010

Friday, November 12, 2010

बाघ



बाघ की आँखों को देख कर याद आती है भगत सिंह की,
चन्द्रशेखर की,
तीर धनुष लिये काले आदिवासियों की।
लक्ष्यभेदी अविचल आँखें उनकी, बाघ जैसी।

बाघ हमला करेगा तो मारा जायेगा, यह तय है।
पर कोई उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करेगा,
तो चीर डाला जायेगा यह भी तय है।

अँधेरी रात में जुड़वाँ तारों जैसी उसकी आँखें,
भगत सिंह की आँखों की याद दिलाती हैं,
सपनों में डूबी आँखें।

बाघ इंसान थोड़े ही है,
उसे क्या मालूम कि उसकी आड़ में कोई अपनी सरकार चला रहा है।
या उसकी अपनी सरकार उसके जंगल का सौदा कर रही है।
बाघ तो जानवर है।
ईश्वर ने जैसा पैदा किया वैसा ही, बिल्कुल ठेठ।

फँस जायेगा और मर मिटेगा अपने जंगल पर।

7 मई 2010

Thursday, November 11, 2010

आभासी युद्ध

फ़िल्मों में वियतनाम को जीतने के बाद
अमेरिका ने बना लिया है कास्त्रो को मारने के लिए विडियो गेम।
अब कास्त्रो बच नहीं सकता।
लेकिन,
“कम से कम उन बच्चों को तो बचा लो
जिन्होंने अभी आदमी का मांस नहीं चखा है”।
(लू शुन, एक पागल की डायरी।)

महाशक्ति अमेरिका,
उस शून्य को कभी मार नहीं पाया,
जो ‘चे’ को मारने के बाद उगा था।
जो वियतनाम से लेकर उसके सैनिक लौटे थे।
जो छाया रहा हिरोशिमा नागासाकी के आसमान पर।
जो सैकड़ों गले का फंदा बना।

एक के बाद एक सैनिकों की बलि चढ़ाने के बाद,
जो उलझ गया है उसी शून्य में,
और झुंझला रहा है ख़ुद ही में।
जैसे झुंझला रहा है बामियान में बुद्ध को ध्वस्त करने बाद तालिबान।
जिसमें उलझ कर रह गई है भाजपा 6 दिसंबर के बाद।

ध्वंस के बाद उगा वह शून्य इतना महंगा पड़ता है,
कि हिरोशिमा पर बम गिराने वाला हो जाता है विक्षिप्त।

आभासी युद्ध से नहीं जीती जाती दुनिया।
राजपाट छोड़ कर मैदान में आना पड़ता है बुद्ध की तरह।

Monday, November 08, 2010

उसकी हथेली और हमारी बात

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उसने हाथ बढ़ाया मेरी ओर
मैंने भी बढ़ कर हाथ मिलाया।

उसकी नर्म और गर्म हथेली बच्चों की सी थी।
मैंने हथेली भर कर उसका हाथ थाम लिया।

हम बात कुछ और कर रहे थे,
सोच कुछ और रहे थे,
पर हम साथ साथ समझ रहे थे,
कि यूँ हाथ मिलाना अच्छा लगता है।
रस्ता रोक कर यूँ बातें घुमाना अच्छा लगता है।

फिर दोनों ही झेंप गये।
संक्षेप में मुस्कुरा कर अपनी अपनी दिशा हो लिये।

किसी बहाने से अचानक मैं पलटा,
और वह जा चुकी थी।

कुछ सोच कर वह भी पलटी होगी,
और मैं जा चुका होउंगा।

उस रास्ते पर अब रोज़, उसी समय मैं आता हूँ।

Sunday, November 07, 2010

वह बोल रही है।

वह अब बड़ी हो गई है।
मैं उसकी उम्र की बात नहीं कर रहा।

वह देश के चार पाँच बड़े शहर घूम कर आई है।

मानो उसने अभी अभी चलना सीखा और दौड़ रही है।
मानो उसने अभी अभी भाषा सीखी और बोल रही है।

उसकी तस्वीरों के शोर से समझ में आ रहा है
कि उसका विश्वास छू रहा है,
धरती और आसमान एक साथ।

Thursday, November 04, 2010

वह

वह हर गली नुक्कड़ पर तन कर खड़ा था।
लोग आते जाते सिर नवाते, चद्दर चढ़ाते उसको।

दीमक ने अपना महल बना लिया था अन्दर ही अन्दर उसके।

मैंने जब वरदान माँगा,
तो वह ढह गया।
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21 सितंबर 2010.

Wednesday, November 03, 2010

भूख


भूख बनाती है मूल्य।

इस पार या उस पार होने को उकसाती है।
नियति भूख के पीछे चलती है।
ढा देती है मीनार।

सभी ईश्वर, देवी-देवता, स्तब्ध रह जाते हैं।
भूख रचती है इतिहास।