Sunday, May 11, 2014

लकड़ सुंघवा


रात में भी लोगों में रहने लगा है अब,
लकड़-सुंघवा का डर।

[लकड़ी सुंघा कर बच्चे को बेहोश करके बोरे में भरकर ले जाने वाला।]

1

लू के मौसम में,
जब सुबह का स्कूल होता है,
दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है,
“सो जा बेटा, नहीं तो लकड़-सुंघवा आ जाएगा”।
“माँ, लकड़-सुंघवा को पुलिस क्यों नहीं पकड़ लेती?”
“बेटा, वह पुलिस को तनख़्वाह देता है”।

शाम को जब बच्चा सो कर उठता,
तो मान लेता है कि लकड़-सुंघवा आया
और बिना बच्चा चुराये चला गया।

पर एक रोज़ बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुंघवा। पर रात में।
पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़ खड़ पर कुत्तें भौंक रहे थे।
बिल्ली सा वह आया दबे पाँव।

सोये हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक।
जो भाग सके वे अँधे, बहरे, लूले, लंगड़े हो गये,
लेकिन ज़्यादातर नीन्द में ही सोये रह गये।

और धीरे धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर।
जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फ़ाईलों पर,
पुलिस थाने की शिकायत पुस्तिका पर।

एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी।
समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था।

2     

ज़मीन के अन्दर दबी बस्ती उभर आई अचानक।
जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो ठंड के मौसम में।

पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू।
कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें,
खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी।

पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया,
कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे।

अब किसको इसकी सज़ा दें और किसको पकड़ें धरें।

इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा,
जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया।
खुदाई पूरी होने के इंतज़ार में खड़े लोग,
खड़े रह गये।

उन्होंने उतरना चाहा हालांकि अन्दर,
कि तभी शोर उठा,
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!

संघर्ष के स्मारक

अब नींद लेता हूँ भरपूर।  

लम्बे संघर्ष के बाद
अब पता है, नहीं मिलेगा इंसाफ़।

अब तो इतना ही काफ़ी है कि ये देह,
संघर्ष के स्मारक, बच जायें।
क्या पता कभी इनमें जान फुंक जाये।  

जगह मिली तो करवट ले लेंगे।  
तब तक चित चादर तान सोयेंगे।

ठंड बढ़ रही है और अलाव भी धुंध ही पैदा कर रहा है घना। 

दर्दनाक घटनाएँ

दर्दनाक घटनाओं पर कविता नहीं लिखी जा सकती।
संभव ही नहीं है।
मेरा मतलब है कि विश्वसनीय नहीं होगा।
कवि के लिए भी कि उधर पुलिस थाने में बलात्कार की ऐसी घटनाएँ घट रही हैं कि महिला के अन्दर से कई अंग बाहर निकल आएँ और आप कविता रच रहे हैं, और पाठक के लिए भी, कि उसने शहरों में निम्न मध्यम वर्गीय जीवन बिताया है, उसके अनुभव संसार से जुड़ ही नहीं पाएगी वह कविता जो सोनी सोरी के लिए लिखी गई है या कवासी हिड़में के लिए।

दर्दनाक घटनाओं की रिपोर्टिंग भी नहीं की जा सकती।
मेरा मतलब है कि कौन लिखेगा रिपोर्ट।
न पुलिस, न रिपोर्टर।

जिस मीडिया का हेडलाईन भी बिका हुआ है और जो उसके साथ मिल कर लड़कियों की सुरक्षा का चला रहा है कैम्पेन जो जंगल का जंगल काटने में लेता है उसी पुलिस की मदद जो बलात्कार करना कर्तव्य समझती है। जिसकी देश भक्ति तभी जागती है जब कोई ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ लगाता है।

दर्दनाक घटनाओं पर कभी इंसाफ़ भी नहीं मिल सकता।
मेरा मतलब है कि कौन करेगा इंसाफ़।
जब गवाहों से पूछा ही नहीं जाएगा सवाल,
जब तथ्यों को रखा ही नहीं जाएगा सामने, हालांकि ऐसा भी नहीं है कि जजों को कुछ मालूम नहीं है, तो कैसे होगा इंसाफ़।
हर फ़ैसले के पहले जज अपनी खिड़की के पर्दे हटा एक बार लेता है जन-भावना की टोह फिर लिखता है इंसाफ़। और जज की खिड़की से जो दिखता है जन, उसे केवल अपनी ही ख़बर है।

बिना अनुभव के दर्दनाक घटनाओं के पक्ष में नहीं निकलेगी आवाज़।
उन घटनाओं की यह धमकी है कि आप इंतज़ार करें वैसी ही घटनाओं का।
इंतज़ार करें कि आपके साथ भी बलात्कार हो।      

एक पेंटिंग

एक दंगाई हाथ जोड़े खड़ा है.
दंगे में मारे गए लोग हाथ जोड़े खड़े हैं.

एक आतंकवादी हाथ जोड़े खड़ा है.
धमाकों में मारे गए लोग हाथ जोड़े खड़े हैं.

एक भ्रष्टाचारी हाथ जोड़े खड़ा है.
अदालत में बलात्कारी हाथ जोड़े खड़ा है.

पुलिस और पॉलिटिशियन के भेस में,
समूचा अपराध जगत हाथ जोड़े खड़ा है.
देश की जनता मूक बधिर खड़ी है.

एक कुत्ते का पिल्ला असमंजस की स्थिति में 
कभी आगे कभी पीछे भाग रहा है. 
उसके सामने से गाड़ियाँ सायं सायं निकलती जा रही हैं.

एक निवेदन

जिसने मुझे मारा,
आपको पूरा भरोसा है कि वह आपको नहीं मारेगा.
आप मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं.
आप मुस्कुराते हैं मेरी शिकायत पर,
और आपके बच्चे हँसते हैं
दरवाज़े के पीछे जाकर मुझ पर.  
ऐसा मनोरंजन आपको और कहीं नहीं मिलता है.

अब क्या मैं आपके भी मारे जाने का इंतज़ार करूँ ?
क्या मेरा मारा जाना कम पड़ता है आपके लिए ?
क्या मैं भी इंतज़ार करूं एक बड़ी त्रासदी का,
मूक बधिर बनकर देखने के लिए ?

ख़ंजर आपके भी सीने में उतरे यह ज़रूरी तो नहीं !  
दर्द से आप भी चीख़ें यह ज़रूरी तो नहीं !
आप भी बेघर हों, सुबह शाम छाती पीटें यह ज़रूरी तो नहीं !
सारे खेल आपके साथ भी हों यह ज़रूरी तो नहीं !

क्या कर दूँ कि मुझे शत्रु बताने वालों की चाल आप समझ लें पहले ही
और अपनी बारी को रोक दें आने के पहले ही.