अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब। - मुक्तिबोध।
मैंने तुम्हारे खेत में जो धान रोपा था, उसमें बाली आ गई है अब। वह धूप में सोने की तरह चमकती है, और हवाओं की सरसर में वैसे ही झुकती है, जैसे तुम झुक आती हो मुझ पर।