Wednesday, December 29, 2010

महादेव


जैसे से जैसे सूरज निकलता है,

नीला होता जाता है आसमान।

जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।

धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने-तपने लगती है भरपूर।

शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा .... और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।

20.06.2010

यह कविता समालोचन पर भी पोस्ट हुई है।

Wednesday, December 22, 2010

वह कुछ बोल नहीं सका।

इस कविता को असुविधा पर भी पढ़ा जा सकता है।

चार साल थी उसकी उम्र,
जब उसके पिता का देहांत हुआ।

घर में लाश रखी थी।
अगरबत्ती का धुँआ सीधे छत को छू रहा था।
लोग भरे थे ठसा ठस।
वह सबकी नज़रें बचा कर,
सीढ़ियों से उतर कर
बेसमेंट में खड़ी पापा की स्कूटर के पायदान पर बैठ जाता था।
स्कूटर पोंछता और पोंछ कर ऊपर चला आता।

मुझे पता नहीं, उसे मरने के मतलब बारे में पता था या नहीं।
लेकिन मौत के बाद बदले समीकरण को उसने उसी उम्र में देख लिया था।
जो रो रहे थे, वे रो नहीं रहे थे।
क़ुरान की तेलावत की भिन भिन करती आवाज़ों के ख़ामोश मध्यांतर में,
चाभियों, वसीयत, जायदाद, खाते और इंश्योरेंस का महत्व बढ़ गया।

दफ़्न के बाद वह खड़ा रह गया अकेला
अपनी विधवा माँ के साथ बाढ़ के बाद धुल चुके घर के बीच।

कुछ भी रोक नहीं सका।
वह कुछ बोल नहीं सका।
अभिव्यक्ति का अभ्यास नहीं था उसका।

Monday, December 20, 2010

बाघ

यह कविता असुविधा पर 14 दिसंबर को पोस्ट हुई थी। आज इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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मुझे उम्मीद है कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए,
बाघ बन जायेगा कवि,
जैसे डायनासोर बन गया छिपकली,
और कवि कभी कभी बाघ।

वह पंजा ही है
जो बाघ और कवि को लाता है समकक्ष।
दोनों ही निशान छोड़ते हैं। मारे जाते हैं।

Monday, December 13, 2010

चिड़ियाघर का एक नया प्राणी


यह कविता सर्वप्रथम दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'दो आबा' के दिसंबर 2010 के अंक में छपी। फिर कुछ संशोधन के साथ जनज्वार पर आई। संशोधन का अपना अधिकार सुरक्षित रखते हुए मैंने अब इसका शीर्षक बदल दिया है।

1

उसकी आँखें लाल नहीं हैं।
न ही वह ग़ुस्से में है।
उसके सामने जो जंगल जल गये,
उसके बिम्ब अंकित हैं उनमें।

धनुष सी देह और तीर सी निगाह लिए जबकि वह चुपचाप खड़ा है।
पर लोग नज़र बचा के कन्खी से ऐसे देख रहे हैं
मानो कुछ हुआ ही न हो।
हालांकि ऐसी कोई ख़बर भी नहीं कि कुछ हुआ है।

अभी तो बस वह शहर में आया ही है,
और लोगों को हो रहा है किसी प्रलय का आभास,
जबकि वह पिंजड़े में बंद है।
और कल से शुरु हो जायेगी उसकी नुमाईश।

2

वह अकेला ऐसा है,
जो बता सकता है क, ख, ग, घ के अलग अलग माने।
और उन्हें जोड़ कर बना सकता है शब्द।
बता सकता है वाक्य विन्यास।

वह पहचान सकता है परिन्दों को रंग और रूप से।
बोल सकता है उनकी बोली,
समझता है उनकी वाणी।
उसके कंठ में अभी सूखा नहीं है कुँए का पानी।

वह अकेला ऐसा है जो,
बता सकता है बच्चों को पेड़ों के नाम।

चिड़ियाघर में एक नये प्राणी के आगमन का,
शहर में लगा है विज्ञापन।

Tuesday, December 07, 2010

नानी का चश्मा


आसमान में टिम टिमाती नानी हँसती होंगी हमारे बचपने पर।


नानी का चश्मा मुझे किसी दूरबीन की तरह ही अजूबा लगता था।

मैं अक्सर उससे पढ़ने की कोशिश करता।

पर उसे लगाते ही आँखें चौन्धिया जातीं थीं।


शब्द चढ़ आते थे और आँखों की कोर से फिसल जाते थे।

तस्वीरें बोलती नहीं, दहाड़ती थीं।

आँखों पर ज़ोर पड़ता था, और मैं जल्दी से उतार कर रख देता।


आज मुझे समझ में आता है कि हमारा आकर्षण असल में चश्मा नहीं था।

उनके उस रूप में था, जो चश्मा लगाने के बाद बदल जाता था।

चश्मा लगा कर, नानी अपना शरीर छोड़ कर किसी लम्बी यात्रा पर निकल गईं दीखती थीं।

यही था हमारा वास्तविक आकर्षण।


अपने ममेरे भाई के साथ उन दिनों चश्मे का रहस्य पता करने में जुटा था।

मेरा भाई कहता था कि इसमें कहानियाँ दीखती हैं।

इसीलिए तो दादी घंटों चश्मा लगाए रखती हैं।

अख़बार और किताब तो बहाना है।


चश्मा छूने और देखने के हमारे उतावलेपन से उनका ध्यान भंग होता,

और वे चश्मे के भीतर से ही हमें देखतीं बाघ की तरह। धीर गंभीर और गहरी।

क्या वे हमें बाघ का बच्चा समझती थीं ?


एक बार टूट गया उनका चश्मा और हमने दौड़ कर उसका शीशा उठा लिया।

यह सोच कर कि शायद हमें दिख जाए कोई कहानी बाहर आते हुए।


मैं ही गया था चश्मा बनवाने।

मैंने चश्मे वाले से पूछा

कि नानी के चश्मे से हमें क्यों नहीं दीखता कुछ भी साफ़ साफ़।

चश्मे वाले ने कहा,

“हर किसी का अपना चश्मा होता है। उसकी अपनी आँख के हिसाब से।

नानी की एक उम्र है, इसीलिए इतना मोटा चश्मा लगाती हैं।

तुम अभी बच्चे हो तुम्हारा चश्मा इतना मोटा नहीं होगा”।


हम दोनों भाई सोचते थे कि कब वह दिन आयेगा, जब हम भी लगायेंगे एक मोटा सा चश्मा।


अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,

उस चश्मे में दिखते हैं नाना,

सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।

गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।

आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।

फ़ौज का उतरना।

रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।

कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।

अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।


और कितने तूफ़ान !!!

कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने से।

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तस्वीर में हृषिकेश सुलभ लिखित 'रंगमंच का जनतंत्र' पढ़ते हुए नानी। साथ में हैं मामू परवेज़ अख़्तर।