Thursday, January 20, 2011

अपनी प्रेमिका के लिए


आदरणीय उदय जी के मशवरे से मैंने अपनी एक कविता का संपादन किया और अब यह इस प्रकार प्रस्तुत है।


जैसे गर्म भाप छोड़ती है नदी,
रोज़ उसमें नहाने वालों के लिए।
जैसे जाड़े की धूप
सेंकती है नन्हें पौधे को।
तुमने मुझे सेंका और पकाया है।


मैंने पूरी दुनिया को भर लिया है आज अपने अंक में।



1 comment:

डिम्पल मल्होत्रा said...

कुछ ही शब्दों की माला में ढेरो बिम्ब रुपी मोती पिरो दिए आपने.आखरी पंक्ति पूरी कविता कि जान है...