Thursday, January 20, 2011

अपनी प्रेमिका के लिए


आदरणीय उदय जी के मशवरे से मैंने अपनी एक कविता का संपादन किया और अब यह इस प्रकार प्रस्तुत है।


जैसे गर्म भाप छोड़ती है नदी,
रोज़ उसमें नहाने वालों के लिए।
जैसे जाड़े की धूप
सेंकती है नन्हें पौधे को।
तुमने मुझे सेंका और पकाया है।


मैंने पूरी दुनिया को भर लिया है आज अपने अंक में।



Thursday, January 13, 2011

अम्मी का चूल्हा


मैं उस समय की बात कर रहा हूँ जब कोयले के चूल्हे जलते थे,

और छप्पर से धुँआ उठता था।


ईंट ईंट जोड़ कर अपने हाथों से अम्मी बनाती थीं मिट्टी का चूल्हा।

कुशल कारीगर की तरह अपने स्थापत्य में वे तल्लीन रहतीं।

इतनी तन्मयता तो कभी उनके सजने सँवरने में नहीं दिखी।


वह इस क़दर एकाग्रचित हो कर अपना हुनर दिखातीं,

मानो अपना घर बना रही हों।

वे असल में अपने घर बनाने की ऊर्जा ही यहाँ लगा रही थीं।

अपने घर की दीवारें, कमरें, दरवाज़े ही होते थे उनके मन में

जब वे चूल्हा बनाती थीं।


अगर होता, तो वह घर भी उतना ही सोंधा और लिपा पुता होता।

दो अलाव की तरह ही होता दो कमरा

और एक दरवाज़ा होता जहाँ से वे लाकर डालतीं कोयला

फिर पकता इतना खाना उस घर में

कि राज़ी ख़ुशी सबको पूरा पड़ता।


बहरहाल, नया चूल्हा बनने के बाद जो खीर बनती

वह उनके गृह प्रवेश की ही खीर होती थी।

गीली मिट्टी की महक और खीर के स्वाद में उनकी प्रतिभा का सुख था।


रात को थपकी देकर चूल्हे को सुला देतीं

और चूल्हा भी मानो पालकी में सोया कोई बच्चा बन जाता।

फिर वे ख़ुद भी थक कर सो जातीं।


उन्हें सपनों में चूल्हा आता,

नये नये निर्माण के तरीक़े आते।

खोरनी आती, फूँकनी आती, परेशान करने वाला धुँआ आता।

वे बड़बड़ाती जातीं; डोई के रखने की जगह बनानी है।

अभी तो दल-घोटनी के टांगने के लिए भी कील चाहिए।

अदहन उतार कर दाईं तरफ़ रखें या बाईं तरफ़ ?

...........और रात कट जाती।


जब से गैस का चूल्हा आया, उनका निर्माण कौशल जाता रहा।

फिर से एक बार चूल्हा बनाने का उनका सपना

सपना ही रह गया।


गुज़रते हुए वक़्त के साथ अब तो उनकी शक्ल में ही दिखने लगा है चूल्हा।

दो सूने अलाव की तरह सूनी दो आँखें,

टिकी रहती हैं अशोक राजपथ पे कोयले का इंतज़ार करती हुई।

सपनों में ही वे अब बना पातीं हैं; दो अलाव की तरह दो कमरा, एक दरवाज़ा।

सपनों में ही ख़रीदकर ले आतीं हैं कोयला और रात गुज़र जाती है।

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इस कविता को फ़ेसबुक पर भी देखा जा सकता है।

Wednesday, January 05, 2011

नानी



मैं रोने का हक़ भी न अदा कर सका।
मैं जनाज़े पे उनके जा न सका।
वक़्ते रुख़्सत अगर न मिलो किसी से।
सुना है सपने में उसका वुजूद ज़िन्दा रहता है सदा।
तभी तो, वे सब उठ उठ के आते हैं मेरे पास।
जैसे आता है धधकते ईंजन में कोयला झोंकने गाड़ीवान।
और चल पड़ता हूँ मैं पटरी थाम। तेज़ गाम।


Tuesday, January 04, 2011

1975 का लोकगीत


बिदेसी की चिट्ठी नहीं आई
बरस बीत गए।
कुछ भेजा नहीं उसने,
बरस बीत गए।

स्वाद गया रंग गया जब वह गया,
खाना गले से उतरे बरस बीत गए।

सुनते हैं ईनाम है,
ज़िन्दा या मुर्दा,
सिर पे उसके।
बाग़ी हुआ, बीहड़ गया,
बरस बीत गये।
पोस्टर लगा, पुलिस आई,
चौखट उखाड़ के ले गई,
कुर्की हुई, बेटा हुआ, बरस बीत गये।

भेज कोई सन्देस कि अब तो बरस बीत गए।
छाती मेरी सूख गई, बरस बीत गये।
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इस कविता को समालोचन पर भी पढ़ सकते हैं।