Monday, May 23, 2011

अल्लाह मियाँ



अल्लाह मियाँ कभी मुझसे मिलना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।

घूम के आओ गांव हमारे।
देख के आओ नद्दी नाले।
फटी पड़ी है वहाँ की धरती।
हौसले हिम्मत पस्त हमारे।
चाहो तो ख़ुद ही चल जाओ।
वरना चलना संग हमारे।

अल्लाह मियाँ कभी नींद से जगना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।

झांक के देखो,
खिड़की आंगन,
मेरा घर,
सरकार का दामन। 
ख़ाली बर्तन, ख़ाली बोरी,
ख़ाली झोली जेब है मेरी।

अल्लाह मियाँ ज़रा इधर भी देखो,  
मेहर तेरी उस ओर है।
भर कर रखा अन्न वहाँ पर,
पहरा जहाँ चहुँ ओर है।

अल्लाह मियाँ कभी ठीक से सोचो
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा,
तेरा, वक़्त निकाल के।
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यह कविता समालोचन पर सर्वप्रथम प्रकाशित हुई। 

Saturday, May 21, 2011

बिक रहे हैं अख़बार



अब अख़बार पढ़ने से ज़्यादा बेचने के काम आते हैं।
मेरे सारे अख़बार बिक चुके हैं।
अख़बारों को बेचने के पैसे बहुत मिलते हैं।
और बिग बाज़ार में तो दाम तिगुने मिलते हैं।

पन्ने पर पन्ना छप रही है ख़बर,
क्यों कि लोग ख़रीद रहे हैं अख़बार।

पेपर की रिसाईक्लिंग के बाद
फिर से छपेगी ख़बर,
फिर से लोग ख़रीदेंगे,
और फिर से बिकेंगे अख़बार।
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यह कविता सर्वप्रथम समालोचन पर प्रकाशित हुई।  

Friday, May 20, 2011

बकरी



खेत में घास चरती बकरी
पास से गुज़रती हर ट्रेन को यूँ सिर उठा कर देखती है,
मानो पहली बार देख रही हो ट्रेन।
जैसे कोई देखता है गुज़रती बारात,
जैसे खिड़की से सिर निकाल कर कोई देखता है बारिश,  
जैसे एकाग्र हो कर सुनता है कोई तान। 

ट्रेन गुज़र जाने के बाद,
उस दृश्य आनन्द से निर्लिप्त वह,
चरने लग जाती है घास नये सिरे से।
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यह कविता समालोचन पर भी है।  

Thursday, May 19, 2011

जबकि ....... हूँ अकेला



हर फ़ैसले के वक़्त लगता है,
कोई ट्रेन छूट रही है,
कोई पीछे से आवाज़ लगा रहा है,
या कोई भागता हुआ आ रहा है रोकता।
मैं जबकि सवा अरब की भीड़ में खड़ा हूँ अकेला।  
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इसे समालोचन पर भी देख सकते हैं।  

Wednesday, May 18, 2011

क्यों लगता है ऐसा



पता नहीं क्यों हर बार लगता है,
रेल पर सफ़र करते हुए
कि टीटी आएगा और टिकट देख कर कहेगा
कि आपका टिकट ग़लत है
या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गये हैं,
आपकी गाड़ी का समय तो कुछ और है,
तारीख़ भी ग़लत है,
आपने ग़लत प्लेटफ़ॉर्म से ग़लत गाड़ी पकड़ ली है,
आप उल्टी तरफ़ जा रहे हैं।
और वह चेन खींच कर उतार देगा
मुझे निर्जन खेतों के बीच।
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यह कविता सबसे पहले समालोचन पर पोस्ट हुई।

Wednesday, May 04, 2011

मुस्कुराहटें


हर कोई मुस्कुराता है
अपने अपने अर्थ के साथ।

बच्चा मुस्कुराता है,
तो लगता है, वह निर्भय है।
प्रेमिका मुस्कुराती है,
तो लगता है, उसे स्वीकार है मेरा प्रस्ताव।
दार्शनिक मुस्कुराता है,
तो लगता है, व्यंग्य कर रहा है दुनिया पर।
भूखा मुस्कुराता है,
तो लगता है, वह मुक्त हो चुका है और पाने को पड़ी है
उसके सामने पूरी दुनिया।

जब अमीर मुस्कुराता है,
तो लगता है, शासक मुस्कुरा रहा है,
कि देश की कमज़ोर नब्ज़ उसके हाथ में है,
कि जब भी उसे मज़ा लेना होगा,
दबा देगा थोड़ा सा।