Friday, October 29, 2010

एक पागल का प्रलाप


मैंने अभय जी (अभय तिवारी) द्वारा अनूदित और संपादित 'कलामे रूमी' की सत्तर पृष्ठों वाली भूमिका पढ़ी तो मुझ पर रूमी सवार हो गया और सूफ़ियाना निर्भयता के चरम को महसूस करने के बाद यह कविता अवतरित हुई। अभय जी ने इस कविता को अपने ब्लॉग निर्मल आनन्द पर पोस्ट किया था। अब मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।



कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।

वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।

जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।

जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।

पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?

वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?