गंगा में अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज।
पूरे शहर की सफ़ाई हुई होगी।
उस्मान ने रंगा होगा त्रिपोलिया का मेहराब।
बने होंगे पथरी घाट के तोरण द्वार।
परसों सबने खाए होंगे गन्ने के रस से बनी खीर,
और गुलाबी गगरा निंबू।
व्रती ने लिया होगा हाथ में पान और कसैली।
अम्मी बता रही थीं,
चाची से अब सहा नहीं जाता उपवास,
इसलिए मंजु दीदी ने उठाया है उनका व्रत।
धान की फ़सल अच्छी आई है इस बार।
रुख़सार की शादी भी अब हो जायेगी।
उसकी अम्मी ने भी अपना एक सूप दिया था मंजु दीदी को।
सबकी कामनाएँ पूरी होंगी।
पानी पटा होगा सड़कों पर शाम के अर्घ्य के पहले।
धूल चुपचाप कोना थाम कर बैठ गई होगी।
व्रती जब साष्टांग करते हुए बढ़ते हैं घाट पर,
तो वहाँ धूल कण नहीं होना चाहिए, न ही आना चाहिए मन में कोई पाप।
वरना बहुत पाप चढ़ता है।
इस समय बढ़ने लगती है ठंड पटना में।
मुझे याद है एक व्रती।
सुबह अर्घ्य देकर वह निकला पानी से,
अपने में पूरा जल जीवन समेटे
और चेहरे पर सूर्य का तेज लिये।
गंगा से निकला वह
दीये की लौ की तरह सीधा और संयत।
सुबह के अर्घ्य में ज़्यादा मज़ा आता था,
क्यों कि ठेकुआ खाने को तब ही मिलता था।
पूरा शहर अब थक कर सो रहा होगा,
एक महान कार्य के बोध के साथ।
13. 11. 2010
4 comments:
बहुत खूबसूरत छठ की याद ...
छठ के अलग अलग रंगो को दिखाती रचना।
kafi accha lika hai bhart ke puja ko aap ne itana kari se jana ashcharya hai mere liye. kavita me sanskirti se sath kisan ke mehnat or puja ki mithash hai.
Aloka
वाह, बहुत बढ़िया . . . आपकी खट्टी मीठी यादों में हम भी लिसर गए :-)
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