चन्द्रशेखर की,
तीर धनुष लिये काले आदिवासियों की।
लक्ष्यभेदी अविचल आँखें उनकी, बाघ जैसी।
बाघ हमला करेगा तो मारा जायेगा, यह तय है।
पर कोई उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करेगा,
तो चीर डाला जायेगा यह भी तय है।
अँधेरी रात में जुड़वाँ तारों जैसी उसकी आँखें,
भगत सिंह की आँखों की याद दिलाती हैं,
सपनों में डूबी आँखें।
बाघ इंसान थोड़े ही है,
उसे क्या मालूम कि उसकी आड़ में कोई अपनी सरकार चला रहा है।
या उसकी अपनी सरकार उसके जंगल का सौदा कर रही है।
बाघ तो जानवर है।
ईश्वर ने जैसा पैदा किया वैसा ही, बिल्कुल ठेठ।
फँस जायेगा और मर मिटेगा अपने जंगल पर।
7 मई 2010
2 comments:
विचारणीय रचना ..
बाघ की दिलेरी याद दिलाती है ,फरीद भाई की 'अभिव्यक्ति की जिन्दादिली' की
आप जब भी लिखते है ,
हम जैसे तो अपनी बौद्धिकता की तुच्छता में सिकुड़ जाते है
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