Sunday, May 11, 2014

दर्दनाक घटनाएँ

दर्दनाक घटनाओं पर कविता नहीं लिखी जा सकती।
संभव ही नहीं है।
मेरा मतलब है कि विश्वसनीय नहीं होगा।
कवि के लिए भी कि उधर पुलिस थाने में बलात्कार की ऐसी घटनाएँ घट रही हैं कि महिला के अन्दर से कई अंग बाहर निकल आएँ और आप कविता रच रहे हैं, और पाठक के लिए भी, कि उसने शहरों में निम्न मध्यम वर्गीय जीवन बिताया है, उसके अनुभव संसार से जुड़ ही नहीं पाएगी वह कविता जो सोनी सोरी के लिए लिखी गई है या कवासी हिड़में के लिए।

दर्दनाक घटनाओं की रिपोर्टिंग भी नहीं की जा सकती।
मेरा मतलब है कि कौन लिखेगा रिपोर्ट।
न पुलिस, न रिपोर्टर।

जिस मीडिया का हेडलाईन भी बिका हुआ है और जो उसके साथ मिल कर लड़कियों की सुरक्षा का चला रहा है कैम्पेन जो जंगल का जंगल काटने में लेता है उसी पुलिस की मदद जो बलात्कार करना कर्तव्य समझती है। जिसकी देश भक्ति तभी जागती है जब कोई ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ लगाता है।

दर्दनाक घटनाओं पर कभी इंसाफ़ भी नहीं मिल सकता।
मेरा मतलब है कि कौन करेगा इंसाफ़।
जब गवाहों से पूछा ही नहीं जाएगा सवाल,
जब तथ्यों को रखा ही नहीं जाएगा सामने, हालांकि ऐसा भी नहीं है कि जजों को कुछ मालूम नहीं है, तो कैसे होगा इंसाफ़।
हर फ़ैसले के पहले जज अपनी खिड़की के पर्दे हटा एक बार लेता है जन-भावना की टोह फिर लिखता है इंसाफ़। और जज की खिड़की से जो दिखता है जन, उसे केवल अपनी ही ख़बर है।

बिना अनुभव के दर्दनाक घटनाओं के पक्ष में नहीं निकलेगी आवाज़।
उन घटनाओं की यह धमकी है कि आप इंतज़ार करें वैसी ही घटनाओं का।
इंतज़ार करें कि आपके साथ भी बलात्कार हो।      

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