Wednesday, January 05, 2011

नानी



मैं रोने का हक़ भी न अदा कर सका।
मैं जनाज़े पे उनके जा न सका।
वक़्ते रुख़्सत अगर न मिलो किसी से।
सुना है सपने में उसका वुजूद ज़िन्दा रहता है सदा।
तभी तो, वे सब उठ उठ के आते हैं मेरे पास।
जैसे आता है धधकते ईंजन में कोयला झोंकने गाड़ीवान।
और चल पड़ता हूँ मैं पटरी थाम। तेज़ गाम।


3 comments:

डिम्पल मल्होत्रा said...

वक़्ते रुख़्सत अगर न मिलो किसी से।
सुना है सपने में उसका वुजूद ज़िन्दा रहता है सदा। amazing...n true

Ravi yadav said...

भावनातम रचना

अनुपमा पाठक said...

मेरी अपनी बात लगती है...