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Sunday, September 11, 2011

हम बारिश में भीग कर आए।

छाता लेकर निकलना तो इक बहाना था,
असल में हमको इस बारिश में भीगना था।

हम लम्बे मार्ग पर चल रहे थे,
ताकि देर तक भीग सकें साथ साथ....
और ऐसा ही इक मार्ग चुना,
जिस पर और किसी के आने जाने की संभावना क्षीण हो।

लम्बी दूरी के बाद हमें दिखा
एक पेड़ के नीचे,
एक चूल्हा और एक केतली लिए, एक चाय वाला।
एक गर्म चाय हमने पी। 
हम भीग रहे थे और हमारे बीच की हवा गर्म थी।  
हमारे अन्दर भाप उठ रही थी।

हमने पहली बार एक दूसरे को इतना एकाग्र हो,
इस क़दर साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ देखा था बिल्कुल भीतर।    

उस क्षण आँखों के सिवा और कुछ नहीं रहा शेष इस सृष्टि में।
बाक़ी सब कुछ घुल रहा था पानी में।   

Sunday, August 14, 2011

अतीत


जब मुझे वह छोड़ के जा रही थी,
उसके लौटने की उम्मीद में उसका मन मेरे पास ही खड़ा रह गया।
पर वह जा चुकी थी पहाड़ी के उस पार,
जहाँ सूरज ढलता है शाम का।

बरसों बाद आज उसने लौटना चाहा,
पर इस बार उसके मन ने ही उसे रोक दिया।


बरसों बाद आज,
बहुत दूर निकल आने के अहसास ने
उसकी हड्डियों में जो सिहरन पैदा की
वह उम्र की झुर्रियाँ छोड़ गईं। 

बहुत दूर निकल आने का अहसास,  
हमेशा लौटने की अदम्य चाहत के वक़्त ही होता है,
जब लौटना उतना ही मुश्किल होता है,
जितना बचपन और जवानी का लौटना। 

Monday, May 23, 2011

अल्लाह मियाँ



अल्लाह मियाँ कभी मुझसे मिलना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।

घूम के आओ गांव हमारे।
देख के आओ नद्दी नाले।
फटी पड़ी है वहाँ की धरती।
हौसले हिम्मत पस्त हमारे।
चाहो तो ख़ुद ही चल जाओ।
वरना चलना संग हमारे।

अल्लाह मियाँ कभी नींद से जगना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।

झांक के देखो,
खिड़की आंगन,
मेरा घर,
सरकार का दामन। 
ख़ाली बर्तन, ख़ाली बोरी,
ख़ाली झोली जेब है मेरी।

अल्लाह मियाँ ज़रा इधर भी देखो,  
मेहर तेरी उस ओर है।
भर कर रखा अन्न वहाँ पर,
पहरा जहाँ चहुँ ओर है।

अल्लाह मियाँ कभी ठीक से सोचो
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा,
तेरा, वक़्त निकाल के।
..............................................
यह कविता समालोचन पर सर्वप्रथम प्रकाशित हुई। 

Saturday, May 21, 2011

बिक रहे हैं अख़बार



अब अख़बार पढ़ने से ज़्यादा बेचने के काम आते हैं।
मेरे सारे अख़बार बिक चुके हैं।
अख़बारों को बेचने के पैसे बहुत मिलते हैं।
और बिग बाज़ार में तो दाम तिगुने मिलते हैं।

पन्ने पर पन्ना छप रही है ख़बर,
क्यों कि लोग ख़रीद रहे हैं अख़बार।

पेपर की रिसाईक्लिंग के बाद
फिर से छपेगी ख़बर,
फिर से लोग ख़रीदेंगे,
और फिर से बिकेंगे अख़बार।
.......................................
यह कविता सर्वप्रथम समालोचन पर प्रकाशित हुई।  

Friday, May 20, 2011

बकरी



खेत में घास चरती बकरी
पास से गुज़रती हर ट्रेन को यूँ सिर उठा कर देखती है,
मानो पहली बार देख रही हो ट्रेन।
जैसे कोई देखता है गुज़रती बारात,
जैसे खिड़की से सिर निकाल कर कोई देखता है बारिश,  
जैसे एकाग्र हो कर सुनता है कोई तान। 

ट्रेन गुज़र जाने के बाद,
उस दृश्य आनन्द से निर्लिप्त वह,
चरने लग जाती है घास नये सिरे से।
.........................................
यह कविता समालोचन पर भी है।  

Thursday, May 19, 2011

जबकि ....... हूँ अकेला



हर फ़ैसले के वक़्त लगता है,
कोई ट्रेन छूट रही है,
कोई पीछे से आवाज़ लगा रहा है,
या कोई भागता हुआ आ रहा है रोकता।
मैं जबकि सवा अरब की भीड़ में खड़ा हूँ अकेला।  
..................................
इसे समालोचन पर भी देख सकते हैं।  

Wednesday, May 18, 2011

क्यों लगता है ऐसा



पता नहीं क्यों हर बार लगता है,
रेल पर सफ़र करते हुए
कि टीटी आएगा और टिकट देख कर कहेगा
कि आपका टिकट ग़लत है
या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गये हैं,
आपकी गाड़ी का समय तो कुछ और है,
तारीख़ भी ग़लत है,
आपने ग़लत प्लेटफ़ॉर्म से ग़लत गाड़ी पकड़ ली है,
आप उल्टी तरफ़ जा रहे हैं।
और वह चेन खींच कर उतार देगा
मुझे निर्जन खेतों के बीच।
……………………………
यह कविता सबसे पहले समालोचन पर पोस्ट हुई।

Wednesday, May 04, 2011

मुस्कुराहटें


हर कोई मुस्कुराता है
अपने अपने अर्थ के साथ।

बच्चा मुस्कुराता है,
तो लगता है, वह निर्भय है।
प्रेमिका मुस्कुराती है,
तो लगता है, उसे स्वीकार है मेरा प्रस्ताव।
दार्शनिक मुस्कुराता है,
तो लगता है, व्यंग्य कर रहा है दुनिया पर।
भूखा मुस्कुराता है,
तो लगता है, वह मुक्त हो चुका है और पाने को पड़ी है
उसके सामने पूरी दुनिया।

जब अमीर मुस्कुराता है,
तो लगता है, शासक मुस्कुरा रहा है,
कि देश की कमज़ोर नब्ज़ उसके हाथ में है,
कि जब भी उसे मज़ा लेना होगा,
दबा देगा थोड़ा सा। 

Wednesday, February 02, 2011

प्रेमिका के नाम

मैंने तुम्हारे खेत में जो धान रोपा था,
उसमें बाली आ गई है अब।
वह धूप में सोने की तरह चमकती है,
और हवाओं की सरसर में वैसे ही झुकती है,
जैसे तुम झुक आती हो मुझ पर।

Thursday, January 20, 2011

अपनी प्रेमिका के लिए


आदरणीय उदय जी के मशवरे से मैंने अपनी एक कविता का संपादन किया और अब यह इस प्रकार प्रस्तुत है।


जैसे गर्म भाप छोड़ती है नदी,
रोज़ उसमें नहाने वालों के लिए।
जैसे जाड़े की धूप
सेंकती है नन्हें पौधे को।
तुमने मुझे सेंका और पकाया है।


मैंने पूरी दुनिया को भर लिया है आज अपने अंक में।



Thursday, January 13, 2011

अम्मी का चूल्हा


मैं उस समय की बात कर रहा हूँ जब कोयले के चूल्हे जलते थे,

और छप्पर से धुँआ उठता था।


ईंट ईंट जोड़ कर अपने हाथों से अम्मी बनाती थीं मिट्टी का चूल्हा।

कुशल कारीगर की तरह अपने स्थापत्य में वे तल्लीन रहतीं।

इतनी तन्मयता तो कभी उनके सजने सँवरने में नहीं दिखी।


वह इस क़दर एकाग्रचित हो कर अपना हुनर दिखातीं,

मानो अपना घर बना रही हों।

वे असल में अपने घर बनाने की ऊर्जा ही यहाँ लगा रही थीं।

अपने घर की दीवारें, कमरें, दरवाज़े ही होते थे उनके मन में

जब वे चूल्हा बनाती थीं।


अगर होता, तो वह घर भी उतना ही सोंधा और लिपा पुता होता।

दो अलाव की तरह ही होता दो कमरा

और एक दरवाज़ा होता जहाँ से वे लाकर डालतीं कोयला

फिर पकता इतना खाना उस घर में

कि राज़ी ख़ुशी सबको पूरा पड़ता।


बहरहाल, नया चूल्हा बनने के बाद जो खीर बनती

वह उनके गृह प्रवेश की ही खीर होती थी।

गीली मिट्टी की महक और खीर के स्वाद में उनकी प्रतिभा का सुख था।


रात को थपकी देकर चूल्हे को सुला देतीं

और चूल्हा भी मानो पालकी में सोया कोई बच्चा बन जाता।

फिर वे ख़ुद भी थक कर सो जातीं।


उन्हें सपनों में चूल्हा आता,

नये नये निर्माण के तरीक़े आते।

खोरनी आती, फूँकनी आती, परेशान करने वाला धुँआ आता।

वे बड़बड़ाती जातीं; डोई के रखने की जगह बनानी है।

अभी तो दल-घोटनी के टांगने के लिए भी कील चाहिए।

अदहन उतार कर दाईं तरफ़ रखें या बाईं तरफ़ ?

...........और रात कट जाती।


जब से गैस का चूल्हा आया, उनका निर्माण कौशल जाता रहा।

फिर से एक बार चूल्हा बनाने का उनका सपना

सपना ही रह गया।


गुज़रते हुए वक़्त के साथ अब तो उनकी शक्ल में ही दिखने लगा है चूल्हा।

दो सूने अलाव की तरह सूनी दो आँखें,

टिकी रहती हैं अशोक राजपथ पे कोयले का इंतज़ार करती हुई।

सपनों में ही वे अब बना पातीं हैं; दो अलाव की तरह दो कमरा, एक दरवाज़ा।

सपनों में ही ख़रीदकर ले आतीं हैं कोयला और रात गुज़र जाती है।

..................................
इस कविता को फ़ेसबुक पर भी देखा जा सकता है।

Wednesday, January 05, 2011

नानी



मैं रोने का हक़ भी न अदा कर सका।
मैं जनाज़े पे उनके जा न सका।
वक़्ते रुख़्सत अगर न मिलो किसी से।
सुना है सपने में उसका वुजूद ज़िन्दा रहता है सदा।
तभी तो, वे सब उठ उठ के आते हैं मेरे पास।
जैसे आता है धधकते ईंजन में कोयला झोंकने गाड़ीवान।
और चल पड़ता हूँ मैं पटरी थाम। तेज़ गाम।


Tuesday, January 04, 2011

1975 का लोकगीत


बिदेसी की चिट्ठी नहीं आई
बरस बीत गए।
कुछ भेजा नहीं उसने,
बरस बीत गए।

स्वाद गया रंग गया जब वह गया,
खाना गले से उतरे बरस बीत गए।

सुनते हैं ईनाम है,
ज़िन्दा या मुर्दा,
सिर पे उसके।
बाग़ी हुआ, बीहड़ गया,
बरस बीत गये।
पोस्टर लगा, पुलिस आई,
चौखट उखाड़ के ले गई,
कुर्की हुई, बेटा हुआ, बरस बीत गये।

भेज कोई सन्देस कि अब तो बरस बीत गए।
छाती मेरी सूख गई, बरस बीत गये।
.......................................................................

इस कविता को समालोचन पर भी पढ़ सकते हैं।

Wednesday, December 29, 2010

महादेव


जैसे से जैसे सूरज निकलता है,

नीला होता जाता है आसमान।

जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।

धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने-तपने लगती है भरपूर।

शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा .... और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।

20.06.2010

यह कविता समालोचन पर भी पोस्ट हुई है।

Wednesday, December 22, 2010

वह कुछ बोल नहीं सका।

इस कविता को असुविधा पर भी पढ़ा जा सकता है।

चार साल थी उसकी उम्र,
जब उसके पिता का देहांत हुआ।

घर में लाश रखी थी।
अगरबत्ती का धुँआ सीधे छत को छू रहा था।
लोग भरे थे ठसा ठस।
वह सबकी नज़रें बचा कर,
सीढ़ियों से उतर कर
बेसमेंट में खड़ी पापा की स्कूटर के पायदान पर बैठ जाता था।
स्कूटर पोंछता और पोंछ कर ऊपर चला आता।

मुझे पता नहीं, उसे मरने के मतलब बारे में पता था या नहीं।
लेकिन मौत के बाद बदले समीकरण को उसने उसी उम्र में देख लिया था।
जो रो रहे थे, वे रो नहीं रहे थे।
क़ुरान की तेलावत की भिन भिन करती आवाज़ों के ख़ामोश मध्यांतर में,
चाभियों, वसीयत, जायदाद, खाते और इंश्योरेंस का महत्व बढ़ गया।

दफ़्न के बाद वह खड़ा रह गया अकेला
अपनी विधवा माँ के साथ बाढ़ के बाद धुल चुके घर के बीच।

कुछ भी रोक नहीं सका।
वह कुछ बोल नहीं सका।
अभिव्यक्ति का अभ्यास नहीं था उसका।

Monday, December 20, 2010

बाघ

यह कविता असुविधा पर 14 दिसंबर को पोस्ट हुई थी। आज इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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मुझे उम्मीद है कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए,
बाघ बन जायेगा कवि,
जैसे डायनासोर बन गया छिपकली,
और कवि कभी कभी बाघ।

वह पंजा ही है
जो बाघ और कवि को लाता है समकक्ष।
दोनों ही निशान छोड़ते हैं। मारे जाते हैं।

Monday, December 13, 2010

चिड़ियाघर का एक नया प्राणी


यह कविता सर्वप्रथम दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'दो आबा' के दिसंबर 2010 के अंक में छपी। फिर कुछ संशोधन के साथ जनज्वार पर आई। संशोधन का अपना अधिकार सुरक्षित रखते हुए मैंने अब इसका शीर्षक बदल दिया है।

1

उसकी आँखें लाल नहीं हैं।
न ही वह ग़ुस्से में है।
उसके सामने जो जंगल जल गये,
उसके बिम्ब अंकित हैं उनमें।

धनुष सी देह और तीर सी निगाह लिए जबकि वह चुपचाप खड़ा है।
पर लोग नज़र बचा के कन्खी से ऐसे देख रहे हैं
मानो कुछ हुआ ही न हो।
हालांकि ऐसी कोई ख़बर भी नहीं कि कुछ हुआ है।

अभी तो बस वह शहर में आया ही है,
और लोगों को हो रहा है किसी प्रलय का आभास,
जबकि वह पिंजड़े में बंद है।
और कल से शुरु हो जायेगी उसकी नुमाईश।

2

वह अकेला ऐसा है,
जो बता सकता है क, ख, ग, घ के अलग अलग माने।
और उन्हें जोड़ कर बना सकता है शब्द।
बता सकता है वाक्य विन्यास।

वह पहचान सकता है परिन्दों को रंग और रूप से।
बोल सकता है उनकी बोली,
समझता है उनकी वाणी।
उसके कंठ में अभी सूखा नहीं है कुँए का पानी।

वह अकेला ऐसा है जो,
बता सकता है बच्चों को पेड़ों के नाम।

चिड़ियाघर में एक नये प्राणी के आगमन का,
शहर में लगा है विज्ञापन।

Tuesday, December 07, 2010

नानी का चश्मा


आसमान में टिम टिमाती नानी हँसती होंगी हमारे बचपने पर।


नानी का चश्मा मुझे किसी दूरबीन की तरह ही अजूबा लगता था।

मैं अक्सर उससे पढ़ने की कोशिश करता।

पर उसे लगाते ही आँखें चौन्धिया जातीं थीं।


शब्द चढ़ आते थे और आँखों की कोर से फिसल जाते थे।

तस्वीरें बोलती नहीं, दहाड़ती थीं।

आँखों पर ज़ोर पड़ता था, और मैं जल्दी से उतार कर रख देता।


आज मुझे समझ में आता है कि हमारा आकर्षण असल में चश्मा नहीं था।

उनके उस रूप में था, जो चश्मा लगाने के बाद बदल जाता था।

चश्मा लगा कर, नानी अपना शरीर छोड़ कर किसी लम्बी यात्रा पर निकल गईं दीखती थीं।

यही था हमारा वास्तविक आकर्षण।


अपने ममेरे भाई के साथ उन दिनों चश्मे का रहस्य पता करने में जुटा था।

मेरा भाई कहता था कि इसमें कहानियाँ दीखती हैं।

इसीलिए तो दादी घंटों चश्मा लगाए रखती हैं।

अख़बार और किताब तो बहाना है।


चश्मा छूने और देखने के हमारे उतावलेपन से उनका ध्यान भंग होता,

और वे चश्मे के भीतर से ही हमें देखतीं बाघ की तरह। धीर गंभीर और गहरी।

क्या वे हमें बाघ का बच्चा समझती थीं ?


एक बार टूट गया उनका चश्मा और हमने दौड़ कर उसका शीशा उठा लिया।

यह सोच कर कि शायद हमें दिख जाए कोई कहानी बाहर आते हुए।


मैं ही गया था चश्मा बनवाने।

मैंने चश्मे वाले से पूछा

कि नानी के चश्मे से हमें क्यों नहीं दीखता कुछ भी साफ़ साफ़।

चश्मे वाले ने कहा,

“हर किसी का अपना चश्मा होता है। उसकी अपनी आँख के हिसाब से।

नानी की एक उम्र है, इसीलिए इतना मोटा चश्मा लगाती हैं।

तुम अभी बच्चे हो तुम्हारा चश्मा इतना मोटा नहीं होगा”।


हम दोनों भाई सोचते थे कि कब वह दिन आयेगा, जब हम भी लगायेंगे एक मोटा सा चश्मा।


अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,

उस चश्मे में दिखते हैं नाना,

सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।

गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।

आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।

फ़ौज का उतरना।

रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।

कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।

अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।


और कितने तूफ़ान !!!

कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने से।

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तस्वीर में हृषिकेश सुलभ लिखित 'रंगमंच का जनतंत्र' पढ़ते हुए नानी। साथ में हैं मामू परवेज़ अख़्तर।