Sunday, September 11, 2011
हम बारिश में भीग कर आए।
Sunday, August 14, 2011
अतीत
जब मुझे वह छोड़ के जा रही थी,
उसके लौटने की उम्मीद में उसका मन मेरे पास ही खड़ा रह गया।
पर वह जा चुकी थी पहाड़ी के उस पार,
जहाँ सूरज ढलता है शाम का।
बरसों बाद आज उसने लौटना चाहा,
पर इस बार उसके मन ने ही उसे रोक दिया।
Monday, May 23, 2011
अल्लाह मियाँ
Saturday, May 21, 2011
बिक रहे हैं अख़बार
Friday, May 20, 2011
बकरी
Thursday, May 19, 2011
जबकि ....... हूँ अकेला
Wednesday, May 18, 2011
क्यों लगता है ऐसा
Wednesday, May 04, 2011
मुस्कुराहटें
Wednesday, February 02, 2011
प्रेमिका के नाम
मैंने तुम्हारे खेत में जो धान रोपा था,
उसमें बाली आ गई है अब।
वह धूप में सोने की तरह चमकती है,
और हवाओं की सरसर में वैसे ही झुकती है,
जैसे तुम झुक आती हो मुझ पर।
Thursday, January 20, 2011
अपनी प्रेमिका के लिए
आदरणीय उदय जी के मशवरे से मैंने अपनी एक कविता का संपादन किया और अब यह इस प्रकार प्रस्तुत है।
Thursday, January 13, 2011
अम्मी का चूल्हा
मैं उस समय की बात कर रहा हूँ जब कोयले के चूल्हे जलते थे,
और छप्पर से धुँआ उठता था।
ईंट ईंट जोड़ कर अपने हाथों से अम्मी बनाती थीं मिट्टी का चूल्हा।
कुशल कारीगर की तरह अपने स्थापत्य में वे तल्लीन रहतीं।
इतनी तन्मयता तो कभी उनके सजने सँवरने में नहीं दिखी।
वह इस क़दर एकाग्रचित हो कर अपना हुनर दिखातीं,
मानो अपना घर बना रही हों।
वे असल में अपने घर बनाने की ऊर्जा ही यहाँ लगा रही थीं।
अपने घर की दीवारें, कमरें, दरवाज़े ही होते थे उनके मन में
जब वे चूल्हा बनाती थीं।
अगर होता, तो वह घर भी उतना ही सोंधा और लिपा पुता होता।
दो अलाव की तरह ही होता दो कमरा
और एक दरवाज़ा होता जहाँ से वे लाकर डालतीं कोयला
फिर पकता इतना खाना उस घर में
कि राज़ी ख़ुशी सबको पूरा पड़ता।
बहरहाल, नया चूल्हा बनने के बाद जो खीर बनती
वह उनके गृह प्रवेश की ही खीर होती थी।
गीली मिट्टी की महक और खीर के स्वाद में उनकी प्रतिभा का सुख था।
रात को थपकी देकर चूल्हे को सुला देतीं
और चूल्हा भी मानो पालकी में सोया कोई बच्चा बन जाता।
फिर वे ख़ुद भी थक कर सो जातीं।
उन्हें सपनों में चूल्हा आता,
नये नये निर्माण के तरीक़े आते।
खोरनी आती, फूँकनी आती, परेशान करने वाला धुँआ आता।
वे बड़बड़ाती जातीं; डोई के रखने की जगह बनानी है।
अभी तो दल-घोटनी के टांगने के लिए भी कील चाहिए।
अदहन उतार कर दाईं तरफ़ रखें या बाईं तरफ़ ?
...........और रात कट जाती।
जब से गैस का चूल्हा आया, उनका निर्माण कौशल जाता रहा।
फिर से एक बार चूल्हा बनाने का उनका सपना
सपना ही रह गया।
गुज़रते हुए वक़्त के साथ अब तो उनकी शक्ल में ही दिखने लगा है चूल्हा।
दो सूने अलाव की तरह सूनी दो आँखें,
टिकी रहती हैं अशोक राजपथ पे कोयले का इंतज़ार करती हुई।
सपनों में ही वे अब बना पातीं हैं; दो अलाव की तरह दो कमरा, एक दरवाज़ा।
सपनों में ही ख़रीदकर ले आतीं हैं कोयला और रात गुज़र जाती है।
Wednesday, January 05, 2011
नानी
मैं रोने का हक़ भी न अदा कर सका।
Tuesday, January 04, 2011
1975 का लोकगीत
बिदेसी की चिट्ठी नहीं आई
Wednesday, December 29, 2010
महादेव
जैसे से जैसे सूरज निकलता है,
नीला होता जाता है आसमान।
जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।
धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने-तपने लगती है भरपूर।
शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा .... और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।
20.06.2010
यह कविता समालोचन पर भी पोस्ट हुई है।
Wednesday, December 22, 2010
वह कुछ बोल नहीं सका।
चार साल थी उसकी उम्र,
Monday, December 20, 2010
बाघ
Monday, December 13, 2010
चिड़ियाघर का एक नया प्राणी
उसकी आँखें लाल नहीं हैं।
न ही वह ग़ुस्से में है।
उसके सामने जो जंगल जल गये,
उसके बिम्ब अंकित हैं उनमें।
धनुष सी देह और तीर सी निगाह लिए जबकि वह चुपचाप खड़ा है।
पर लोग नज़र बचा के कन्खी से ऐसे देख रहे हैं
मानो कुछ हुआ ही न हो।
हालांकि ऐसी कोई ख़बर भी नहीं कि कुछ हुआ है।
अभी तो बस वह शहर में आया ही है,
और लोगों को हो रहा है किसी प्रलय का आभास,
जबकि वह पिंजड़े में बंद है।
और कल से शुरु हो जायेगी उसकी नुमाईश।
2
वह अकेला ऐसा है,
जो बता सकता है क, ख, ग, घ के अलग अलग माने।
और उन्हें जोड़ कर बना सकता है शब्द।
बता सकता है वाक्य विन्यास।
वह पहचान सकता है परिन्दों को रंग और रूप से।
बोल सकता है उनकी बोली,
समझता है उनकी वाणी।
उसके कंठ में अभी सूखा नहीं है कुँए का पानी।
वह अकेला ऐसा है जो,
बता सकता है बच्चों को पेड़ों के नाम।
चिड़ियाघर में एक नये प्राणी के आगमन का,
शहर में लगा है विज्ञापन।
Tuesday, December 07, 2010
नानी का चश्मा
आसमान में टिम टिमाती नानी हँसती होंगी हमारे बचपने पर।
नानी का चश्मा मुझे किसी दूरबीन की तरह ही अजूबा लगता था।
मैं अक्सर उससे पढ़ने की कोशिश करता।
पर उसे लगाते ही आँखें चौन्धिया जातीं थीं।
शब्द चढ़ आते थे और आँखों की कोर से फिसल जाते थे।
तस्वीरें बोलती नहीं, दहाड़ती थीं।
आँखों पर ज़ोर पड़ता था, और मैं जल्दी से उतार कर रख देता।
आज मुझे समझ में आता है कि हमारा आकर्षण असल में चश्मा नहीं था।
उनके उस रूप में था, जो चश्मा लगाने के बाद बदल जाता था।
चश्मा लगा कर, नानी अपना शरीर छोड़ कर किसी लम्बी यात्रा पर निकल गईं दीखती थीं।
यही था हमारा वास्तविक आकर्षण।
अपने ममेरे भाई के साथ उन दिनों चश्मे का रहस्य पता करने में जुटा था।
मेरा भाई कहता था कि इसमें कहानियाँ दीखती हैं।
इसीलिए तो दादी घंटों चश्मा लगाए रखती हैं।
अख़बार और किताब तो बहाना है।
चश्मा छूने और देखने के हमारे उतावलेपन से उनका ध्यान भंग होता,
और वे चश्मे के भीतर से ही हमें देखतीं बाघ की तरह। धीर गंभीर और गहरी।
क्या वे हमें बाघ का बच्चा समझती थीं ?
एक बार टूट गया उनका चश्मा और हमने दौड़ कर उसका शीशा उठा लिया।
यह सोच कर कि शायद हमें दिख जाए कोई कहानी बाहर आते हुए।
मैं ही गया था चश्मा बनवाने।
मैंने चश्मे वाले से पूछा
कि नानी के चश्मे से हमें क्यों नहीं दीखता कुछ भी साफ़ साफ़।
चश्मे वाले ने कहा,
“हर किसी का अपना चश्मा होता है। उसकी अपनी आँख के हिसाब से।
नानी की एक उम्र है, इसीलिए इतना मोटा चश्मा लगाती हैं।
तुम अभी बच्चे हो तुम्हारा चश्मा इतना मोटा नहीं होगा”।
हम दोनों भाई सोचते थे कि कब वह दिन आयेगा, जब हम भी लगायेंगे एक मोटा सा चश्मा।
अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,
उस चश्मे में दिखते हैं नाना,
सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।
गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।
आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।
फ़ौज का उतरना।
रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।
कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।
अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।
और कितने तूफ़ान !!!
कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने से।
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तस्वीर में हृषिकेश सुलभ लिखित 'रंगमंच का जनतंत्र' पढ़ते हुए नानी। साथ में हैं मामू परवेज़ अख़्तर।