इस कविता को असुविधा पर भी पढ़ा जा सकता है।
चार साल थी उसकी उम्र,
जब उसके पिता का देहांत हुआ।
घर में लाश रखी थी।
अगरबत्ती का धुँआ सीधे छत को छू रहा था।
लोग भरे थे ठसा ठस।
वह सबकी नज़रें बचा कर,
सीढ़ियों से उतर कर
बेसमेंट में खड़ी पापा की स्कूटर के पायदान पर बैठ जाता था।
स्कूटर पोंछता और पोंछ कर ऊपर चला आता।
मुझे पता नहीं, उसे मरने के मतलब बारे में पता था या नहीं।
लेकिन मौत के बाद बदले समीकरण को उसने उसी उम्र में देख लिया था।
जो रो रहे थे, वे रो नहीं रहे थे।
क़ुरान की तेलावत की भिन भिन करती आवाज़ों के ख़ामोश मध्यांतर में,
चाभियों, वसीयत, जायदाद, खाते और इंश्योरेंस का महत्व बढ़ गया।
दफ़्न के बाद वह खड़ा रह गया अकेला
अपनी विधवा माँ के साथ बाढ़ के बाद धुल चुके घर के बीच।
कुछ भी रोक नहीं सका।
वह कुछ बोल नहीं सका।
अभिव्यक्ति का अभ्यास नहीं था उसका।
1 comment:
बहुत मार्मिक प्रस्तुति ..
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