
आसमान में टिम टिमाती नानी हँसती होंगी हमारे बचपने पर।
नानी का चश्मा मुझे किसी दूरबीन की तरह ही अजूबा लगता था।
मैं अक्सर उससे पढ़ने की कोशिश करता।
पर उसे लगाते ही आँखें चौन्धिया जातीं थीं।
शब्द चढ़ आते थे और आँखों की कोर से फिसल जाते थे।
तस्वीरें बोलती नहीं, दहाड़ती थीं।
आँखों पर ज़ोर पड़ता था, और मैं जल्दी से उतार कर रख देता।
आज मुझे समझ में आता है कि हमारा आकर्षण असल में चश्मा नहीं था।
उनके उस रूप में था, जो चश्मा लगाने के बाद बदल जाता था।
चश्मा लगा कर, नानी अपना शरीर छोड़ कर किसी लम्बी यात्रा पर निकल गईं दीखती थीं।
यही था हमारा वास्तविक आकर्षण।
अपने ममेरे भाई के साथ उन दिनों चश्मे का रहस्य पता करने में जुटा था।
मेरा भाई कहता था कि इसमें कहानियाँ दीखती हैं।
इसीलिए तो दादी घंटों चश्मा लगाए रखती हैं।
अख़बार और किताब तो बहाना है।
चश्मा छूने और देखने के हमारे उतावलेपन से उनका ध्यान भंग होता,
और वे चश्मे के भीतर से ही हमें देखतीं बाघ की तरह। धीर गंभीर और गहरी।
क्या वे हमें बाघ का बच्चा समझती थीं ?
एक बार टूट गया उनका चश्मा और हमने दौड़ कर उसका शीशा उठा लिया।
यह सोच कर कि शायद हमें दिख जाए कोई कहानी बाहर आते हुए।
मैं ही गया था चश्मा बनवाने।
मैंने चश्मे वाले से पूछा
कि नानी के चश्मे से हमें क्यों नहीं दीखता कुछ भी साफ़ साफ़।
चश्मे वाले ने कहा,
“हर किसी का अपना चश्मा होता है। उसकी अपनी आँख के हिसाब से।
नानी की एक उम्र है, इसीलिए इतना मोटा चश्मा लगाती हैं।
तुम अभी बच्चे हो तुम्हारा चश्मा इतना मोटा नहीं होगा”।
हम दोनों भाई सोचते थे कि कब वह दिन आयेगा, जब हम भी लगायेंगे एक मोटा सा चश्मा।
अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,
उस चश्मे में दिखते हैं नाना,
सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।
गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।
आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।
फ़ौज का उतरना।
रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।
कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।
अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।
और कितने तूफ़ान !!!
कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने से।
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तस्वीर में हृषिकेश सुलभ लिखित 'रंगमंच का जनतंत्र' पढ़ते हुए नानी। साथ में हैं मामू परवेज़ अख़्तर।
7 comments:
नानी के चश्में से बहुत कुछ दिखा दिया ....अच्छी अभिव्यक्ति
बहुत ही प्यारी कहानी है नानी के चश्मे की,कितना ऎतिहासिक और दिग्दर्शी चश्मा है नानी, कालजयी..क्या देख गया और क्या दिखा गया..बहुत प्यारा गद्य..
संस्कृति और कथा संजोये हुए अनोखा चश्मा!
बहुत सुन्दर!
सच कहा हरेक का अपना अपना चश्मा होता है जो बड़े तजुर्बे से मिलाता है ,
बड़ी सशक्त कविता लिखी आपने ,बहुत बधाई आपको !
अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,उस चश्मे में दिखते हैं नाना,सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।फ़ौज का उतरना।रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।
और कितने तूफ़ान !!!कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने ..........!
bahut arthwaan aur gambhir rachna !
यह चश्मा नानी के जीवट संघर्ष का रूपक ही नही है..यह एक कड़ी भी है अतीत की सुनहली स्मृतियों से जोड़े रखने की..यह एक माध्यम है उन जादुई रहस्यों का छोर पा लेने का जिनकी गुत्थियाँ हमारे स्वप्नों तक मे उलझी रहती हैं..यह उस तोते को खोजने की भी कोशिश है जिसमे तमाम किस्सों के दानव की जान बसती है..
एक उम्र गुजार चुकी नानी के चश्में में छिपे थे तजुर्बे उनके..हमारी आपकी आँखें नादान थी..ख्वाबो ख्यालो की दुनिया में हकीकत के कठोर तुफानो को न हम तक पहुँचने दिया...
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