यह कविता सर्वप्रथम दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'दो आबा' के दिसंबर 2010 के अंक में छपी। फिर कुछ संशोधन के साथ जनज्वार पर आई। संशोधन का अपना अधिकार सुरक्षित रखते हुए मैंने अब इसका शीर्षक बदल दिया है।
उसकी आँखें लाल नहीं हैं।
न ही वह ग़ुस्से में है।
उसके सामने जो जंगल जल गये,
उसके बिम्ब अंकित हैं उनमें।
धनुष सी देह और तीर सी निगाह लिए जबकि वह चुपचाप खड़ा है।
पर लोग नज़र बचा के कन्खी से ऐसे देख रहे हैं
मानो कुछ हुआ ही न हो।
हालांकि ऐसी कोई ख़बर भी नहीं कि कुछ हुआ है।
अभी तो बस वह शहर में आया ही है,
और लोगों को हो रहा है किसी प्रलय का आभास,
जबकि वह पिंजड़े में बंद है।
और कल से शुरु हो जायेगी उसकी नुमाईश।
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वह अकेला ऐसा है,
जो बता सकता है क, ख, ग, घ के अलग अलग माने।
और उन्हें जोड़ कर बना सकता है शब्द।
बता सकता है वाक्य विन्यास।
वह पहचान सकता है परिन्दों को रंग और रूप से।
बोल सकता है उनकी बोली,
समझता है उनकी वाणी।
उसके कंठ में अभी सूखा नहीं है कुँए का पानी।
वह अकेला ऐसा है जो,
बता सकता है बच्चों को पेड़ों के नाम।
चिड़ियाघर में एक नये प्राणी के आगमन का,
शहर में लगा है विज्ञापन।
1 comment:
खूबसूरत व्यंजना !
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