अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे।
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब। - मुक्तिबोध।
Wednesday, February 02, 2011
प्रेमिका के नाम
मैंने तुम्हारे खेत में जो धान रोपा था, उसमें बाली आ गई है अब। वह धूप में सोने की तरह चमकती है, और हवाओं की सरसर में वैसे ही झुकती है, जैसे तुम झुक आती हो मुझ पर।
4 comments:
वाह, कई पढ़े पर ये एहसास..अह्ह्ह.
बहुत खूबसूरत.
वाह ..बहुत खूबसूरत एहसास
सुन्दर अभिव्यक्ति
pata nahi imandaari se kahun...to lagta hai ise kahin padh chuka hun...shayad gulzar....
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