
इंसान जिस भस्मासुर को पैदा करता है, वह भस्मासुर उसे ही लील जाता है। क्यों कि वह इंसान ईश्वर नहीं होता जो भस्मासुर को भस्म कर सके। इन्दीरा गाँधी ने एक भस्मासुर पैदा किया था जिसने उन्हें ही भस्म कर दिया। और भस्म हो गया बहुत कुछ जिसके मलबे पर लाचार हम खड़े हैं।
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मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया,
मेरी साईकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई।
और उन सभी साईकिलों को कसा था,
पटना कॉलेज के सामने वाले “दादा जी साईकिल वाले” नाना ने।
अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती
ज़्यादातर साईकिलें उनके हाथों से ही कसी थीं।
पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था।
हाँफ रहा था।
गंतव्य तक पहुँच रहा था।
वहाँ से गुज़रने वाले सभी,
वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे।
सत सिरी अकाल कहने के लिए।
चक्के में हवा भरने के लिए।
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए।
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए।
पछिया चले या पूरवईया, पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी।
हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी।
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई।
पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी।
तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी।
मुझे वहाँ साईकिल में लगाने वाला आईना दिखा,
मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया।
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था।
शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी कि इन्दीरा गाँधी का देहांत हो गया।
चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली।
शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था।
हवा सब में कम कम थी।
स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह।
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा,
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे।
उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, “रहने दो”।
एक दानवीर दान कर रहा था आईना।
उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।