Tuesday, May 19, 2020

सो गए

वो सरकार की लाज बचाने के लिए
भूख और बेरोज़गारी लेकर
ट्रेन की पटरी पर सो गए और कट गए.
अब कोई भी ये कह सकता है
कि सरकार का इसमें क्या दोष है ?
प्रधानमंत्री अकेला क्या क्या करेगा ?
कुछ रोटियाँ और चटनी
उन्होंने प्रधानमंत्री के खाने के लिए वहीं छोड़ दीं.
अगर प्रधानमंत्री खाएगा नहीं तो काम कैसे करेगा ?
ऐसा उन्होंने सोचा था.
सरकार की लाज बचाने के लिए हर कोई सो रहा है.
हर किसी के लिए एक ट्रेन भी चल पड़ी है
और प्रधानमंत्री उनकी रोटियाँ बटोरने.

लावारिस की मौत



जो मर गया सड़क पर चलते चलते
विश्व के मानचित्र पर वह पहले भी लावारिस ही था.
मौत उसकी स्थिति को बदल नहीं पाई.

यह उस व्यक्ति की कहानी है जिसे बताया गया था
कि भारत माता कोई और नहीं, तुम हो.
यही सोच कर तो उसने अपने कंधों पर पूरा शहर उठा रखा था.
अपने बीवी-बच्चों को भी उसमें लगा रखा था.
अपने गाँव-जवार को बुला रखा था.
उसके ही पैरों पर शहर चलता था.
उसके ही कंधों पर जहाज़ उड़ते थे.

उसी शहर ने, जायदाद लिखवाने के बाद निकाल दिए गए बूढ़ों की तरह
उसको भी कह दिया, जाओ, तुमसे संक्रमण फैलता है.

उसके मुँह के शब्द सूख गए.
उसकी अभिव्यक्ति को काठ मार गया.
अपने बच्चे को क्या मुँह दिखाएगा,
यह सोच कर वह कट गया.

Wednesday, May 06, 2020

समा गई पिंकी धरती में


पिंकी चल पड़ी पैदल ही पूरे देश को दुत्कार के.
थूक के सरकार के मुँह पे.
मुँह फेर के उनके वादों से
पिंकी चल पड़ी बारह सौ किलोमीटर दूर अपने देस.
एड़ी फट गई, सड़कें फट गईं.
वह चलती रही और चलती रही.
अंतड़ियाँ चिपक गईं.
चमड़ी सूख गई चिलकती धूप में.
फिर भी वह अपने देस के सपने की तरफ़ बढ़ी जा रही थी निरंतर.
बढ़ी जा रही थी अपने अम्मा-बाबू के सपने की तरफ़.
पर धरती से यह सब सहन न हुआ और फट गई.
समा गई पिंकी उसकी छाती में.
सपने में अम्मा-बाबू के,
पिंकी ने अपना किवाड़ खटखटाया.
पिंजरे का तोता फड़फड़ाया.

रंग

आग का रंग एक होता है और राख का भी.
राख का रंग एक होता है और उसकी धूल का भी.
धूल का रंग एक होता है और उसे उड़ाने वाली हवा का भी.
हवा का रंग एक होता है और अफ़वाहों का भी.
अफ़वाहों का रंग दहशत में थरथर काँपने वाले लहू जैसा ही होता है.
और उन्माद का रंग बिल्कुल तलवार जैसा होता है.
कत्लेआम का रंग एक होता है और विध्वंस का भी.
और समाप्त भी हर जगह एक जैसा ही होता है.

मैंने पहली बार रसोई देखी

मैंने पहली बार रसोई देखी, अभी.
जब हर किसी के लिए पूरा शहर बंद है
और कुछ लोगों का चूल्हा भी बुझ गया है.
मैंने सत्य को सुलगता देखा.
रसोई तो पहले भी देखी थी पर असल में देखी नहीं थी.
जैसे हम कभी अपने उस पैर को नहीं देखते
जिसके सहारे ही हम खड़े हैं या चल पाते.
जब वह थक कर चूर हो जाता है,
जब वह कुछ भी करने से कर देता है इंकार.
तब ही देखते हैं हम अपने पैर को.
तो, मैंने पहली बार रसोई देखी,
चूल्हे से निकलती लपटें देखीं.
गरम गरम कड़ाही देखी.
फूलती पिचकती रोटी देखी.
भगौने से उठता भाप देखा.
उसमें उबलता दूध देखा.
धुआँ देखा.
चिमटा देखा.
हाथ को आग से जलते देखा.
नल का ठंडा पानी देखा.
सब पहली बार. सब पहली बार देखा.
जब पोर पोर में पसीना देखा.
उसमें अपनी माँ को देखा.
माँ को तवे पर सिंकते देखा.
भात के साथ उबलते देखा.
दाल के साथ बहते देखा.
धैर्य को देखा, धैर्य से देखा.
एक जीवन को जलता देखा.
मैंने पहली बार भूख को देखा.
मुँह में घुलते स्वाद को देखा.
पेट में उतरता अमृत देखा.
खाते हुए, अघाते हुए
मैंने घर के बाहर भूखा देखा.
उसके सूखे होंठ को देखा.
आँखों में उसकी लपटें देखीं.
मैंने इधर देखा, मैंने उधर देखा.
मैंने ख़ुद को नज़र चुराते देखा.